संपादकीय

>> गुरुवार, 11 मार्च 2010



लेखक कभी नहीं मरा करता...

यह अंक श्रद्धाजंलि स्वरूप (स्व.) राम सरूप अणखी और (स्व.) शरन मक्कड़ जी को समर्पित है। दोनों ही पंजाबी कथा साहित्य के बहुचर्चित और स्थापित लेखक रहे हैं। अणखी जी को उनकी कहानियों और उपन्यास के क्षेत्र में किए गए कार्य के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। वह ऐसे लेखक थे जो निरन्तर लिखने में विश्वास करते थे। हर समय उनकी कलम चलती रहती थी। अनगिनत कहानियों के साथ-साथ उन्होंने पंजाबी साहित्य को अनेक उपन्यास दिए जिनमें ''परदा और रौशनी'', ''कोठे खड़क सिंह'', ''प्रतापी'' ''सुलघती रात'' ''जख्मी औरत'' ''जिन सिर सोहन पट्टियाँ'' प्रमुख हैं। ''कोठे खड़क सिंह'' उपन्यास पर साहित्य अकादमी, दिल्ली का पुरस्कार वर्ष 1987 में प्रदान हुआ था। यह उपन्यास हिंदी में ''एक गाँव की कहानी'' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 28 अगस्त 1932 में धौला,जिला-संगरूर(पंजाब) में जन्मे राम सरूप अणखी जी का निधन गत 14 फरवरी 2010 को उनके निवास बरनाला में हुआ। (स्व.)शरन मक्कड़ (मार्च, 1939- 10 नवम्बर, 2009) पंजाबी की बहुचर्चित लेखिका रही हैं। इन्होंने अनेक कहानियों और लघुकथाओं की रचना की। पंजाबी लघुकथा में इनके महत्वपूर्ण योगदान को भुला सकना असंभव है। शरन मक्कड़ जी ने अपनी मौलिक रचनात्मकता और सम्पादन कार्य के जरिये पंजाबी लघुकथा के विकास में बहुत बड़ा और उल्लेखनीय काम किया। उन्होंने अनवंत कौर के साथ मिलकर पंजाबी लघुकथा की एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ''अब जूझन के दाव'' सन् 1975 में सम्पादित की थी। यह वह दौर था जब पंजाबी लघुकथा में हमें उंगलियों पर गिने जाने वाले मौलिक और सम्पादित संग्रह दिखाई देते थे। लघुकथाओं के अलावा शरन जी ने पंजाबी में अनेक कहानियाँ लिखीं। 'न दिन, न रात', 'दूसरा हादसा', 'टहनी से टूटा हुआ मनुष्य', 'धुआं और धूल', 'कच्ची ईंटों का पुल' उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं। 'खुंडी धार' शीर्षक से उनका चर्चित लघुकथा- संग्रह है। इसके अतिरिक्त चार कविता संग्रह उन्होंने पंजाबी साहित्य की झोली में डाले।
भले ही उक्त लेखक अब हमारे बीच नहीं रहे हैं, पर लेखक कभी मरा नहीं करता। वह अपनी रचनाओं के जरिये हमारे बीच जिंदा रहता है और ये भी जिंदा रहेंगे हम सब के बीच, अपने लिखे हुए साहित्य के कारण्… ''कथा पंजाब'' इन दोनों लेखकों को भावभीनी श्रद्धाजंलि देता है।
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इस अंक में आप पढेंगे -
“रेखाचित्र/संस्मरण” स्तम्भ के अन्तर्गत राम सरूप अणखी पर पंजाबी कथाकार गुरमेल मडाहड़ द्वारा लिखा रेखाचित्र और ''पंजाबी लघुकथा : आज तक'' के अन्तर्गत शरन मक्कड़ जी की पाँच चुनिंदा लघुकथाओं का हिंदी अनुवाद...
सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब

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रेखाचित्र/संस्मरण



पंजाबी कथा साहित्य में राम सरूप अणखी एक बहुचर्चित नाम है। पंजाबी में ही नहीं, हिंदी में भी उनके हजारों-लाखों पाठक हैं। ऐसी ही स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं में भी होगी क्योंकि उनकी लगभग सभी कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में हुआ है। बरसों वह पंजाबी कहानी पर केन्द्रित ‘कहाणी पंजाब’ नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका भी निकालते रहे। उनके ‘कोठे खड़क सिंह’ उपन्यास को वर्ष १९८७ का साहित्य अकादमी, दिल्ली का पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। पंजाबी में अनगिनत कहानियों और अनेक उपन्यासों के रचियता अणखी जी का गत १४ फ़रवरी २०१० को निधन हो गया। यहाँ प्रस्तुत है- पंजाबी कथाकार गुरमेल मडाहड़ द्वारा लिखा रेखाचित्र जो उनके जीवित होते लिखा गया था और जो पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका “शबद” के जनवरी-जून २००९ में प्रकाशित हुआ था। अब जब अणखी जी हमारे बीच नहीं रहे हैं, इसलिए इसमें भाषा को लेकर थोड़ा परिवर्तन किया गया है।
सुभाष नीरव
संपादक – कथा पंजाब

पंजाबी साहित्य का सचिन तेंदूलकर - राम सरूप अणखी
गुरमेल मडाहड़

सचिन और अणखी में समानता है। वह स्पोर्ट्स का बादशाह है और अणखी साहित्य का। सचिव ने बल्ले के ज़ोर पर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है तो अणखी ने कलम के ज़ोर पर। सचिन की प्रगति में शारीरिक चोटें रोड़े पैदा करती रही हैं और अणखी को घरेलू समस्याओं ने सूली पर टांगे रखा। आलोचकों ने दोनों को खूब खींचा, पर दोनों अपनी कारगुजारियों से उनके मुँह बन्द करते आए हैं।
मुझे याद है, जब मेरी पहली कहानी नवंबर 1968 में प्रकाशित हुई थी तो उस वक्त राम सरूप अणखी साहित्य के मैदान में अपने समकालीनों को ललकारता हुआ आगे ही आगे बढ़ रहा था। पीछे रह गए लेखकों ने उस पर खुलकर आरोप लगाए- ''अणखी चर्चित होने के लिए लुच्ची कहानियाँ लिखता है।'', ''अणखी बहुत बड़ा जुगाड़ी है। पंजाबी में तो क्या उसने हिंदी में भी अपने सैल कायम किए हुए हैं।'' और ऐसे ही अनेक अन्य आरोप आज तक लगाये जाते रहे हैं, जिनमें से सबसे अहम इल्ज़ाम यह है कि अणखी यूनिवर्सिटियों में अपनी किताबें लगवाने के लिए, ईनाम प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकता है। लेकिन उसने ऐसे इल्ज़ामों की कभी परवाह नहीं की, बल्कि और तेजी से आगे बढ़ता गया। 2005 में अणखी को कहीं से भनक पड़ गई कि इस बार भाषा विभाग का शिरोमणि पंजाबी साहित्यकार का एक लाख रुपये का अवार्ड उसे मिलने की संभावना है। वह भाषा विभाग की ईनाम देने वाली सलाहकार कमेटी का सदस्य था। उसने तुरन्त सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उसके मित्रों ने अख़बारों में खबरें लगवाईं, बयान दिए कि अणखी ने ईनाम लेने के लिए मेंबरशिप से इस्तीफा दिया है। पर वर्ष 2007 में भाषा विभाग के सलाहकार बोर्ड के अस्सी प्रतिशत मेंबरों ने स्वयं उस साल के ही नहीं बल्कि अगले वर्ष 2008 के ईनाम लिए तो अणखी के विरुद्ध झंडा उठाने वालों में से कोई कुछ बोला तक नहीं। वैसे उसे इससे पहले पंजाबी साहित्य ट्रस्ट, ढूडीके (1983), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1987), करतार सिंह धालीवाल अवार्ड, लुधियाना(1992), इंटरनेशनल पंजाबी साहित्य सभा, लंदन की ओर से बाबा फरीद अवार्ड(1994) के अलावा अन्य कई पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हो चुके थे।
अणखी के साथ अपनी पैंतीस-चालीस वर्ष की आत्मीय मित्रता के आधार पर मैं यह बात बड़े गर्व से कह सकता हूँ कि अणखी की कामयाबी का कारण उसका जुगाड़ू होना नहीं, बल्कि उसके पीछे उसकी मेहनत है। जिसे वह खुद भी मानता था कि 'वह मेहनती बहुत है, चमत्कारी कम। वह कोई चोटी के प्रतिभाशाली लोगों में नहीं, बल्कि एक मध्यम किस्म का मनुष्य है।' वह पाँच-सात बढ़िया कहानियाँ अथवा एक-दो उपन्यास लिखकर नहीं, वरन अधिक लिखकर प्रसिद्ध हुआ है। लिखे चाहे वह कुछ भी, पर उस पर मेहनत बहुत करता था। उसने पाठकों की नस पहचान रखी थी। लोग क्या पढ़ना चाहते हैं, कैसा पढ़ना चाहते हैं, यह वह अच्छी तरह जानता था। इसलिए वह पाठकों को ही सामने रख कर लिखता रहा। किसी विचारधारा या आलोचकों को सम्मुख रख कर नहीं।
इस बारे में उसका कहना था, ''मैं ज़िन्दगी के सच को पेश करता हूँ। मार्क्सवाद हमें राजनीति से आगे एक जीवन जीने का ढंग भी सिखाता है। इस पक्ष से मैं उसका पक्का हिमायती हूँ। साहित्य का कल्याणकारी और भविष्यमुखी होना उसकी मुख्य ताकत है।''
अणखी ने कभी जी-जान से कविता लिखी थी, किताबें छपवाईं, चर्चा भी हुई, पर उसने कविता लिखना एकदम छोड़ दिया। इस बारे में वह कहता था, ''कविता लिखते समय मुझे ऐसा लगता था जैसे झूठ लिख रहा होऊँ।''
अणखी हर काम प्रोजेक्ट बनाकर करता था। वह जिस प्रोजेक्ट में हाथ डाल लेता, उसे पूरा करके ही दम लेता। उपन्यास भी तो वह प्रोजेक्ट बनाकर ही लिखता था। अर्जुन जब द्रोपदी के स्वयंवर में मछली की आँख में तीर मारने के लिए तैयार खड़ा था तो उससे पूछा गया कि अब तुम्हें क्या दिखाई देता है। अर्जुन का उत्तर था, '' सिर्फ़ मछली की आँख।'' और अणखी को हमेशा सोचे हुए प्रोजेक्ट का लक्ष्य ही दिखता रहा, और कुछ नहीं।
वह लेखक, प्रकाशक और विक्रेता के सारे रोल बड़ी खूबसूरती से निभाता रहा। पहले उसने अपनी किताबें अपने पैसे देकर छपवाईं, पर बाद में ऐसी स्थिति आई कि वह दायें हाथ में एडवांस रोयल्टी लेता था, बायें हाथ से प्रकाशक को पांडुलिपि पकड़ाता था। पंजाबी के लेखकों में से (ओम प्रकाश गाशो को छोड़कर) शायद ही कोई लेखक होगा जो अपने दो सौ से अधिक पाठकों के पतों की लिस्ट दे सके, पर अणखी यदि यह बनाने बैठता तो हो सकता है वह हज़ारों तक पहुँच जाते। गुरबख्श सिंह, नानक सिंह, जसवंत सिंह कंवल के बाद पंजाबी में पाठक पैदा करने में उसका पहला नंबर आता है। माल तैयार करने के साथ-साथ, आवाज़ लगाने और बेचने के कमाल की कला उसके पास थी। यह तो किताबों की बात है, मेरा ख़याल है कि यदि वह फलों की रेहड़ी भी लगाता होता तो बरनाला के सारे रेहड़ियों वालों की छुट्टी कर देता।
रिटायरमेंट से कुछ समय पहले अणखी ने मुझे बताया था कि “मैं एक त्रैमासिक पत्रिका निकालूँगा। जिससे एक तो व्यस्तता बनी रहेगी, दूसरे लेखक मित्रों से जुड़ा रहूँगा। जिसमें से मैं अपनी मेहनत मज़दूरी भी निकाला करूँगा।” मुझे यकीन नहीं आया कि पंजाबी में पत्रिका निकाल कर भी कोई पैसा कमा सकता है, पर अणखी ने ''कहाणी पंजाब'' निकालकर एकबार तो यह साबित कर दिया कि आदमी काम करने वाला हो, पैसे की कोई कमी नहीं। इकट्ठा किया गया दो-ढाई लाख रुपया एक आढ़तिये मित्र को ब्याज पर दिया होने पर उसका दीवाला निकल जाने के कारण डूब गया। अणखी ने कभी उसे बुरा-भला नहीं कहा। मेहनत की, कुछ समय बाद ''कहाणी पंजाब'' को फिर से मज़बूत पैरों पर खड़ा कर दिया।
एक बार मेरे दफ्तर में हम अंग्रेजी-पंजाबी के लेखक-उपन्यासकार राजिंदर बिंबरा के पास बैठे थे। तभी एक इंस्पैक्टर, फूड सप्लाई वहाँ आ गया। पंजाबी की मानी हुई हस्ती। बड़ा ट्रांसपोर्टर और इंस्पैक्टरों का प्रधान। मैंने उसकी अणखी से मुलाकात करवाई तो वह अणखी के चरणों में झुक गया, जो पंजाब के बड़े-बड़े अफ़सरों, मंत्रियों के आगे कभी नहीं झुकता था।
''सर, आपने मुझे पहचाना नहीं। मैं आपका विद्यार्थी हूँ।'' उसने अपने बारे में विस्तार से बता दिया। अणखी गदगद हो गया। विदा लेते समय अणखी को बड़ी विनम्रता से बोला, ''गुरदेव, कभी अपने इस चेले योग्य कोई सेवा हो तो बताना।'' और फिर जब अणखी के साथ आढ़तिये वाली घटना घटित हुई तो वह अपने उस विद्यार्थी से मिला। अणखी ने जो सोचा और कहा था, उससे कहीं अधिक उसने अणखी की सहायता की। यह उसकी कलम और जुबान का ही जादू था कि मैंने आई.ए.एस., पी.सी.एस., आई.पी.एस., पी.पी.एस. अफ़सरों को अपनी कुर्सी से खड़े होकर उसे मिलते देखा है। यहाँ तो उसका कोई जुगाड़ूपना नहीं दिखाई देता था।
समय की वह बहुत कद्र करता, इसे वह बिलकुल नष्ट नहीं करता था। यहाँ तक कि वह धौले से कालेके स्कूल साइकिल पर जाते हुए भी 'बोलियाँ' जोड़ता रहता था। जब कोई 'बोली' पूरी हो जाती तो साइकिल रोककर, झोले में से कॉपी निकालकर उस पर लिख लेता था। ये बोलियाँ उसकी बोलियों की पुस्तक ''कणक दी कहाणी'' में छपीं। इसी प्रकार बच्चों के लिए लिखे खेल गीत ''बाल संदेश'' में हर महीने छपते रहे।
खाली बैठना उसके स्वभाव में था ही नहीं, कुछ न कुछ वह लिखता ही रहता। कविता, कहानी, रेखा-चित्र, इंटरव्यू, अनुवाद, अख़बारी फ़ीचर आदि। वह कहता था कि जैसे पहलवान को अखाड़े में उतरने से पहले बहुत कसरत करनी और खुराक खानी चाहिए, उसी तरह लेखक को बढ़िया लिखने के लिए पढ़ना, घूमना, ज़िन्दगी को समझना बहुत ज़रूरी है। उसे कलम चलाते रहना चाहिए।
रचना पर मेहनत करने की आदत उसे शुरू से ही पड़ गई थी, जब उसने उपन्यास ''परदा ते रौशनी'' लिखना आरंभ किया था। असल में वह उपन्यास लिखने से बहुत बचता था, पर जसवंत सिंह कंवल, बलराज साहनी ने उसकी कहानियाँ पढ़कर उसे उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया। ''प्रतीक'' त्रैमासिक पत्रिका में उसकी कहानी ''अश्के बुढ़िये तेरे !'' पढ़कर सुखबीर ने ख़त लिखा, ''तेरे पास जैसी भाषा है और जैसे-जैसे दिलचस्प पात्र हैं और जैसा कहानी बनाने और उसे बयान करने का अंदाज है, उसे देखते हुए मैं राय दूँगा कि तुम कोई नावल लिखो- बड़ा, भरपूर नावल।'' ख़त पढ़कर अणखी ने उपन्यास का प्रोजेक्ट तैयार करके सुखबीर को भेज दिया। उसने अपनी राय दी। उस राय पर गौर करके अणखी ने उपन्यास लिखा। गुरबचन सिंह भुल्लर को सुनाया। उसकी टिप्पणी सुनकर घर लौटकर उपन्यास रख दिया। हफ्ते बाद फिर पढ़ा। स्वयं को भी जब नहीं जंचा तो पहला चैप्टर रखकर बाकी सारा उपन्यास उसने आग में फेंक दिया। तीन महीने बाद फिर लिखा। मित्रों को सुनाया। फिर लिखा और इस प्रकार उसका पहला उपन्यास ''परदा और रौशनी'' सन् 1972 में छपा। इसी प्रकार उसने ''कोठे खड़क सिंह'' उपन्यास लिखने से पहले भी लगभग दस-बारह गाँवों का सर्वेक्षण किया, उन्हें अपने दिमाग में बिठाया, फिर एक काल्पनिक गाँव ''कोठे खड़क सिंह'' बसाया। उसके पात्रों की सूची तैयार की। उनका रहन-सहन, उठना-बैठना, खाना-पीना, आपसी रिश्ते-नाते, हुलिये, आदतें, सब संक्षेप में तैयार की और फिर जाकर उपन्यास का मुँह-माथा बना। इतनी मेहनत भला कौन करता है ! जितना कोई गुड़ डालता है, उतना ही मीठा प्राप्त कर लेता है। इसी कारण, ''कोठे खड़क सिंह'' को साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया और यह हिंदी में ''एक गाँव की कहानी'' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके अलावा उसके उपन्यास ''परतापी'' ''सुलघदी रात'', ''जख्मी अतीत'', ''जिन सिर सोहन पट्टीयाँ'' और अनेक कहानियों का अनुवाद भारत की लगभग सभी भाषाओं में हो चुका है। फिर अणखी का मीठा उसके समकालीनों को क्यों चुभता है ?
उपन्यास लिखने का उसका ढंग भी अजीब था। जब वह कोई उपन्यास लिख रहा होता तो वह तपस्या करने वाले साधू की तरह 'भोरे' में उतर जाता। अपना मोबाइल फोन बन्द कर देता और घरवालों को कह देता कि इन चार-पाँच व्यक्तियों को छोड़कर किसी का भी फोन आए तो मना कर देना। सवेरे चार बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक थोड़े-थोड़े आराम के साथ अट्ठारह-अट्ठारह, उन्नीस-उन्नीस घंटे वह लिखने में रत रहता।
अणखी ने जब से होश संभाला, उसके सिर पर ऐसा मुसीबतों का घड़ा टिका रहा जिसका हर क्षण कतरा-कतरा करके झरता रहा। जिस कारण उसकी रूह सीलन भरी दीवार की भांति भुरभुराती रही। विधि माता ने उसके भाग्य में पत्नी का सुख बहुत ही कम लिखा। जागीरदार, मुकदमेबाज पिता ने कभी उसकी ओर अपनी रुचि नहीं दिखाई, पर माँ का प्यार उसके लिए श्राप बन गया। बारह बहन-भाइयों में से वे सिर्फ तीन ही जीवित बचे थे। बहन भागवंती बारह साल बड़ी और भाई नवजोश बारह साल छोटा। माँ को जल्दी घर में बहू लाने का चाव था, सो उसने दूसरी जमात में पढ़ते राम सरूप का रिश्ता ले लिया। पाँचवी में पढ़ते का विवाह का प्रोग्राम बन गया, पर दोनों दलों में गलतफहमी पैदा हो जाने के कारण रिश्ता छूट गया। माँ ने फिर फुर्ती दिखाई। पाँचवी में पढ़ते का ही रिश्ता ले लिया। उसी वर्ष विवाह भी कर दिया। दसवीं में पढ़ते का मुकलावा हो गया। सहपाठी बच्चे राम सरूप को 'कबीलदार' कहकर चिढ़ाते, गरमा गरम मजाक करते... वह हँस कर टाल देता। दसवीं पास करके जब महिंदरा कालेज, पटियाला में दाख़िला लिया तो वहाँ की तितलियों जैसी लड़कियों को देखकर राम सरूप का सिंहासन हिल गया। दिल में हीनभावना जागने लगी कि उस जैसे पढ़े-लिखे आदमी को अनपढ़ और ग्रामीण गंवार लड़की कहाँ से माँ ने पल्ले बांध दी। पहले तो अणखी गाँव में जाता ही नहीं था, यदि जाता तो सोमा को ढंग से न बुलाता। कुछ समय देखकर उसके मायके वाले उसे अपने संग ले गए। जहाँ जाकर वह बीमार हो गई। माँ ने वापस लाकर उसकी बहुत सेवा की। उसे बचाने की हरसंभव कोशिश की। कोई वैद्य-हकीम, साधू-संत तक न छोड़ा जिसका इलाज न करवाया हो। पर बुखार था कि टूटा ही नहीं। कोई कहता, इसे ऊपर की हवा है। कोई कहता, तपेदिक है। डाक्टर लोग टाईफाइड बताते थे, पर राम सरूप जानता था या सोमा कि वह तो उसकी बेरुखी की ही मारी है। उसके मरने का अणखी को कोई अफ़सोस न हुआ। यहाँ तक कि मातम में आई उसकी नानी-सास ने कह दिया, ''ले पुत्त(बेटा), अब चाहे बीस जमातें पढ़ ले... हमारी बेटी तो खत्म हो गई।'' माँ ने एक बार फिर फुर्ती दिखाई। दूसरा रिश्ता ले लिया, पर भाँजी मारों ने यहाँ अपना कर्तव्य दिखाया, रिश्ता टूट गया। चौथी बार वह जोगे ब्याहा गया। बाईस साल बस कर आखिर भागवंती ब्रेन टयूमर की मरीज़ होकर बीमारी से लड़ती रही। अन्तिम दिनों में अंधी भी हो गई। दो लड़के, दो लड़कियाँ छोड़कर चवालीस वर्ष के राम सरूप को मझधार में ही गच्चा दे गई। ऊपर से बड़ी बेटी चेतना दिमागी तौर पर अपंग थी जो अगस्त 1983 में चल बसी। माँ, भागवंती की मौत का सदमा सहन न कर सकी और दिमागी संतुलन खो बैठी। बहन उसे अपने पास ले गई। राम सरूप बिलबिला उठा। अकेलापन उसे काटने को आने लगा। कीकर के मोटे सोटे-सा शरीर पत्नी के वियोग में सूखने लग पड़ा। मित्रों ने सोचा, पंजाबी साहित्य का यह टहकता-महकता काला गुलाब कहीं मुरझा ही न जाए। इसे तो एक साथिन की ज़रूरत है जो इसकी ढहती कला को सहारा दे दे। सो, उन्होंने इस बारे में उससे बात की, पर उसने 'न' में सिर हिला दिया। सेक्स उसकी समस्या नहीं थी। उसे तो रंडे आदमी की मुसीबतें घेरे बैठी थीं। उसे बार-बार लोगों से सुनी बातें याद आतीं, जिन पर उसने पहले कभी ध्यान ही नहीं दिया था।
''फलांना, फलाने के घर उसकी औरत के लिए जाता है। फलांना अपनी बहू के साथ रहता है...'' उसे लगता कि ''मैं जल्दी ही समाज से टूट कर रह जाऊँगा। लोग मेरा हुक्का-पानी छेक देंगे।'' इसी डर के कारण उसने अपने सुहृदय मित्रों से कह दिया, ''अच्छा भई, जैसी आपकी मर्जी।'' इसी दौरान जब उसकी जीवन नैया मझधार में गोते खा रही थी, तो उसका डूबते-उभरते का हाथ अजमेर (राजस्थान) में रहती हिंदी की उसकी पाठिका और मराठी लड़की शोभा ने थाम लिया। दो बेटियों की माँ, नेक दिल शोभा भी एक दिन सीढ़ियों से उतरते समय फिसल गई, सिर में ऐसी चोट लगी कि ज़िन्दगी भर के लिए सिर की मरीज़ हो गई। उसका ईलाज करवाने में अणखी ने सामर्थ्य से अधिक धन पानी की तरह बहा दिया। शोभा के साथ के कारण अणखी को गाँव और रिश्तेदारों द्वारा मारे गए ताने खूब सहने पड़े थे।
इसी कारण उसे बरनाला वाली लड़की की अक्सर याद आती रहती। जब वह बरनाला में पढ़ता था तो रिश्तेदारों के घर ब्राह्मणों के घर की एक लड़की आया करती थी जो दसवीं में पढ़ती थी और उसे चाहती थी। उसे भी वह अच्छी लगती। पर साहस नहीं पड़ा कि उसे वह कुछ कह सके। पहल लड़की ने ही की। एक पुरानी चिट्ठी लाकर उसे पढ़कर सुनाने के लिए कहने लगी। दो साल पहले की तारीख थी और अणखी समझ गया था, पर बुद्धू कुछ भी न कह-कर सका। लड़की हँसकर, फिर शर्मिंदा-सी होकर चली गई। बाद में वह पछताता रहा कि यदि उस का उस लड़की से इश्क चल पड़ता तो फिर विवाह भी हो जाता, शायद सुखी रहता। और फिर गाँव वालों और रिश्तेदारों की बातें भी न सुननी पड़तीं।
अणखी की भागवंती की कोख से चार बच्चे हुए। चेतना दिमागी तौर पर विकसित न हुई, स्नेहपाल पढ़ाई छोड़कर ऐशपरस्त हो गया। क्रांतिपाल से छोटी आरती आठवीं में ही पढ़ने से हट गई। शोभा की दो बेटियों में से एक ही पढ़ाई में होशियार निकली। एक अध्यापक के छह बच्चों में से दो बच्चे ही पढ़ाई में होशियार निकलें ? क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है ? इसमें बच्चों के कसूर से कहीं अधिक अणखी द्वारा भागवंती की देखभाल और साहित्य सृजन के प्रति समर्पित हो जाना भी तो क्या एक बड़ा कारण नहीं हो सकता ?
मुसीबतों के तूफान उसकी ज़िन्दगी में जितने ज़ोर से आए, वह उतनी ही ताकत से उनके आगे छाती तान कर अड़ा और लड़ा, पर हारा नहीं। साहित्य का नायक कभी हारा नहीं करता... अगर उसका सृजनकर्ता ही हार गया तो वह दूसरों के लिए क्या मिसाल बनेगा ? फिर वह साहित्यकार ही क्या हुआ ? जितने दुख अणखी ने सहे, अगर कोई दूसरा होता तो इतना साहित्य कभी न रच सकता। हो सकता है, पागल हो गया होता या सलफ़ास खाकर रब को प्यारा हो गया होता।
सारी उम्र दुखों से दो हाथ करने वाले, दृढ़ इरादे वाले और परिश्रमी मनुष्य अणखी का रंग पकी हुई ईंट जैसा, आँखें मोटी-मोटी चमकदार, दाढ़ी कभी रंगी हुई, कभी सफ़ेद जिसे कभी वह चार उंगल रख लेता और कभी कतर लेता। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई एक जैसी... गोल-मटोल। नंगे सिर वाली उसकी तस्वीर देखने वाले को वह सोल्झेनित्सन लगता है, पगड़ी वाली तस्वीर में वह कोई खाता-पीता सरदार जमींदार...। 'अणखी' तखल्लुस(उपनाम) उसने स्वयं शौक से नहीं रखा था। यह तो इत्तेफाक से उसके नाम के साथ खुद-ब-खुद जुड़ गया। बात यूँ हुई कि नौवीं-दसवीं में पढ़ते समय उसके कुछ साथियों ने मिलकर एक साहित्यिक पर्चा 'अणखी' नाम से निकालने का विचार बनाया तो अणखी को उसके एडवरटाइजमेंट का काम सौंप दिया, जिसे उसने बखूबी निभाया। बरनाला की छोटी-बड़ी दीवारें लकड़ी के कोयले से पर्चे की एडवरटाइजमेंट लिख-लिखकर उसने काली कर दीं। पर्चा तो नहीं निकला पर राम सरूप के नाम के साथ अणखी जुड़ गया जैसे गुरबख्श सिंह के साथ 'प्रीतलड़ी', मोहन सिंह के साथ 'पंज दरिया', सुरेन्द्र के साथ 'हेम ज्योति' जगदीश सिंह के साथ 'वरियाम', डा. रघबीर सिंह के साथ 'सिरजना', अमरजीत सिंह के साथ 'अक्स' जुड़ा।
अणखी ने अपनी पढ़ाई-लिखाई टप्परीवासियों की तरह घर से बाहर हंडियाये, बरनाले, नाभे और पटियाले में लोगों के घर में रह कर पूरी की। किसी बेगाने के घर जाकर पढ़ना कितना मुश्किल होता है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है।
पंजाब की प्रसिद्ध साहित्य सभा, बरनाला का जब वह इतिहास पढ़ता, तो उसके जन्मदातों में अपना नाम बाद में आता देखकर और इतिहास लिखने वालों की ईमानदारी सामने रखकर मन मसोस कर रह जाता और उसे 1953 के वे दिन स्मरण हो आते जब वह महिंदरा कालेज, पटियाला से एफ.ए. करके बरनाला आया था, तो महिंदरा कालेज की पंजाबी साहित्य सभा की तरह बरनाला में भी एक साहित्य सभा बनाने के बारे में कर्मचंद रिशी से बात की थी और वह सहमत हो गया था। फिर प्रदीप अरशी से सलाह करके साधू राम सूद (हलवाई, कहानीकार केवल सूद के पिता जी) के चौबारे में पहली साहित्यिक बैठक की गई, जिसमें एस.एस. पदम जिसने नेशनल कालेज, बठिंडा खोला था, प्रसिद्ध शायर प्रो. प्रीतम सिंह 'राही' जो उस वक्त नौवीं कक्षा में पढ़ता था और इंदर सिंह 'ख़ामोश' जो बरनाला में आदर्श ज्ञानी कालेज चलाता था, आदि शामिल हुए थे। इतिहास लिखने वाले इस पहली ऐतिहासिक बैठक को बिलकुल ही खारिज कर देते हैं।
एक समय था जब अणखी किसी लैटर बॉक्स में से पत्रिकाएँ चोरी करके पढ़ा करता था, पर बाद में उसके घर पंजाबी, हिंदी, उर्दू की पत्रिकाएँ इतने आने लगी थीं कि अणखी को कई बार तो उन सारी पत्रिकाओं को खोलने तक का समय नहीं मिलता था। लोग उसे जो किताबें भेंट करते थे, उनमें से वह बहुत कम पढ़ता था और कहता था, ''सच्ची बात तो यह है भाई, मैं उस किताब को पढ़ ही नहीं सकता जिसमें से मैं कुछ सीख नहीं सकता होऊँ।''
गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी के लेखन के प्रभाव के अधीन आकर अणखी ने एफ.ए. करने के बाद आदर्श किसान बनना चाहा। बापू के साथ मिलकर खेती करवाई, कर्जा ले कर बोर करवाया। पम्प सैट के साथ रौणी(खेत में हल चलाने से पहले पानी देने के क्रिया) करता रहा, पर जो खर्चा किया, फसल ने वह भी पूरा नहीं किया। दूसरे वर्ष बराबर रहा। तीसरे साल आई बाढ़ ने सब मलियामेट करके रख दिया। छोड़कर अध्यापक बनना पड़ गया। पर धरती से अपना मोह वह मरते दम तक त्याग नहीं सका। दारू पीने और मेजबानी करने में वह किसी भी खाते-पीते जट्ट से कम नहीं था। हाथ से तंग होने के बावजूद और पत्नी शोभा के रोकने पर भी वह घर आए मित्र की जी भरकर सेवा करता। पी कर घर में तो नहीं, पर बाहर ज़रूर गीत गाने, बोलियाँ डालने की पुरानी लत पूरी करता।
दोस्तियाँ करने और निभाने में भी वह किसी से पीछे नहीं था। वह जिस किसी को प्यार करता, पागलपन की हद तक करता। यार के गुणों को देखता, अवगुणों को नहीं। पर अगर कभी कोई उसके मन से उतर जाता तो वह चुप धार लेता। गुरबचन सिंह भुल्लर, ओम प्रकाश गाशो और इंदर सिंह ख़ामोश उसके लंगोटिये यार थे पर किसी बात पर इनके साथ बिगड़ गई। लम्बे समय तक चुप्पी धारण किए रहा, पर बाद में उसमें अचानक एक ऐसा परिवर्तन आया कि सारे रूठे हुए मित्रों से टूटी हुई तांत फिर से जोड़ ली। कहता- अब ज़िन्दगी रह ही क्या गई है, अन्तिम घड़ियों में किसलिए मित्रों को नाराज़ करे रखें।
नये डिजाइन के कपड़े पहनना, सूटिंग-मैचिंग उसकी आदत से दूर की बात थी। पहले माँ, फिर भागवंती या कभी कोई दोस्त और बाद में शोभा जो भी खरीद कर ला देते, उन्हें सिला कर पहन लेता। उसकी अपनी कोई पसन्द नहीं, कोई उज्र नहीं, खाने-पीने में भी नहीं।
डा. तेजवंत मान की बेटी की शादी के बाद मैं उसे बस में बिठाने के लिए बस स्टैंड पर आया। बस चलने में देर थी। हमने भी दो-दो, चार-चार पैग लगाये हुए थे। बातें चल रही थीं। उस दिन वह मुझे कुछ ज्यादा ही सुस्त-सा लगा। मैंने कारण पूछा तो बोला, ''यार पिचहत्तर साल का होकर अब तो बूढ़ा हो गया हूँ।'' उसके कहने के अंदाज में से मुझे उसकी स्व-जीवनी ''मले झाड़ियाँ'' के पृष्ठ 190-191 याद हो आए। ज़रा आप भी दृष्टिपात कर लें -
''असल में अब मुझे अपनी बड़ी से बड़ी कोई खुशी, खुशी लगती ही नहीं। लगता है जैसे इस संसार में मैं दुख झेलने ही आया था। थामस हार्डी बहुत याद आता है, जब वह लिखता है- ''मनुष्य की ज़िन्दगी एक दुखान्त नाटक है, जिस में खुशी का दृष्टांत कभी-कभार ही आता है।''
भागवंती आप ही दुख नहीं झेलती थी, वह सारे टब्बर को दुख सहने को कहती। मेरे बच्चे पढ़ाई में पिछड़े ही नहीं, यूँ ही बेकद्रे रहे। मेरा अपना बुरा हाल हो गया। मेरी माँ बहू को संभालते-संभालते खुद ही दिमागी संतुलन खो बैठी और भागवंती के मरने के कुछ समय बाद वह आप भी चल बसी। फिर जून 1977 में जब शोभा मेरे घर में आई तो लगा कि मेरी रोटी पकने लगी है। मुझे मानसिक संतुष्टि मिलने लगी। क्रांतिपाल और छोटी बेटी आरती को हम बरनाला ले गए थे। वे बरनाला के स्कूलों में पढ़ने लगे थे। मुझे लगा था कि मेरी ज़िन्दगी की नई शुरूआत हो चुकी है। अब मैं चैन से ज़िन्दगी बसर कर सकूंगा, पर कहाँ ? यह अहसास कुछ बरस ही बना रह सका। न तो बड़े लड़के स्नेहपाल की पढ़ाई पूरी हुई और न ही छोटी बेटी आरती की।
अब काफी समय गुजर चुका है। स्व-जीवनी के पहले भाग के छपने से लेकर अब तक अट्ठारह सालों के दौरान ज़िन्दगी के दुख दूने-चौगुने होकर सिर उठाते रहे। लगता है, ये दुख पहले वाले दुखों से भी बड़े हैं। नित्य बुरी खबरें ही मिलती हैं। क्या करूँ मैं ? बेटियों-बेटों के दुख का मैं अब इस उम्र में क्या करूँ ?
शोभा की छोटी बेटी ब्याह दी थी। वह दसवीं नहीं कर सकी थी। उसकी तरफ से भी कभी ठंडी हवा नहीं आई।
शोभा को इस घर में आए तीस साल हो गए। अभी भी उसे मेरा घर अपना घर नहीं लगता। बस, अपनी एक जिद्द निभा रही है। कभी-कभी खीझ कर कहती है, 'ये दोनों लड़कियाँ अगर मेरे पैरों में बेड़ियाँ नहीं बनी होतीं तो मैं तुझे छोड़कर कभी की चली गई होती।''
मुझे न कोई रिश्तेदार अच्छा लगता है और न कोई दोस्त-मित्र। आदमी मर कर खत्म हो जाता है। यही नहीं, वह मर कर सांस्कृतिक तौर पर भी खत्म हो चुका होता है। पीछे रह जाता है, उसका बकाया। उसकी कमाई, उसकी कमाई में से कमाई। बाकी सब उसके बेटियाँ-बेटे, उसके दोस्त-मित्र, उसके रिश्तेदार, लेखक और पाठक, लेखक के समकालीन धीरे-धीरे भूलने लगते हैं।''

''अणखी तू बूढ़ा ! किस तरफ से बूढ़ा हो गया यार ! हट्टा-कट्टा है और अब तूने लिखित रूप में भी वायदा किया है कि अगर चण्डीगढ़ वाला प्रकाशक इसी तरह सहयोग करता रहा तो मैं हर साल एक नावल लिखा करूँगा।'' मैंने उसे झिंझोड़ा।
''हाँ, यह तो कहा है... पर उम्र के लिहाज से...।'' उसने फिकरा अधूरा ही छोड़ दिया।
''चल फिर प्रेम प्रकाश (वरिष्ठ पंजाबी कथाकार) की तरह मुझे एक बात बता।''
''पूछ।''
''कलम चलती है ?''
''हाँ...।''
''टुल्लू पम्प पानी उठाता है ?''
''हाँ...।''
''सिंचाई पूरी होती है ?''
''हाँ...।''
''फिर तू बूढ़ा कैसे हुआ ?''
यह सुनकर वह ठहाका मार कर पूरे ज़ोर से हँस पड़ा। बस-स्टैंड पर खड़ी सवारियाँ हमारी ओर देखने लगीं और वह हाथ हिलाता हुआ बड़े इत्मीनान से बस की ओर यूँ बढ़ रहा था, मानो उस पर फिर से जवानी आ गई हो।
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गुरमेल मडाहड़
पंजाबी के सुपरिचित कथाकार।
संपर्क : 4/91, अस्तबल,पटियाला गेट
संगरूर-148001 (पंजाब)
फोन : 09463067405

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पंजाबी लघुकथा : आज तक

पंजाबी लघुकथा : आज तक(4)
'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी और दर्शन मितवा की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी की सशक्त लेखिका (स्व.)शरन मक्कड़ (मार्च, 1939- 10 नवम्बर, 2009) की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं... शरन मक्कड़ जी ने अपनी मौलिक रचनात्मकता और सम्पादन कार्य के जरिये पंजाबी लघुकथा के विकास में बहुत बड़ा और उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने अनवंत कौर के साथ मिलकर पंजाबी लघुकथा की एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ''अब जूझन के दाव'' सन् 1975 में सम्पादित की थी। यह वह दौर था जब पंजाबी लघुकथा में हमें उंगलियों पर गिने जाने वाले मौलिक और सम्पादित संग्रह दिखाई देते थे। लघुकथाओं के अलावा शरन जी ने पंजाबी में अनेक कहानियाँ लिखीं। 'न दिन, न रात', 'दूसरा हादसा', 'टहनी से टूटा हुआ मनुष्य', 'धुआं और धूल', 'कच्ची ईंटों का पुल' उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं। 'खुंडी धार' शीर्षक से उनका चर्चित लघुकथा-संग्रह है। इसके अतिरिक्त चार कविता संग्रह उन्होंने पंजाबी साहित्य की झोली में डाले।
सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब



शरन मक्कड़ की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

(1) शेर और शे'र

माँ रोज रात को बच्चों को कहानी सुनाती थी। एक दिन उसकी बेटी ने कहा, ''माँ, आज मैं कहानी सुनाऊँगी। बिलकुल नई। तुमने ऐसी कहानी कभी नहीं सुनी होगी।''
''अच्छा, सुना। पर बेटा, यह तो बता, यह कहानी तूने सुनी किससे है ?''
''माँ, तुम नहीं जानतीं। वह जो शायर अंकल हैं, जीत की कोठी में जो रहते हैं, वह बहुत अच्छे हैं। सब बच्चों को कहानियाँ सुनाते हैं। माँ, हमारे बापू भी तो शेर लिखते थे। है न, माँ ?''
''माँ, ये शायर कौन होते हैं ?'' इससे पहले कि उसकी बहन शायर अंकल से सुनी कहानी सुनाती या उसकी माँ उसके शायर बापू के बारे में कुछ बताती, छोटी बेटी पूछने लगी।
''शायर वे होते हैं जो और कुछ नहीं करते। शे'र लिखते हैं और समझते हैं कि उनके कागजी शेरों की दहाड़ सुनकर सब डर जाएंगे।''
''माँ, उनको शेरों से डर नहीं लगता ?'' छोटी बेटी की सोच भी छोटी थी, जो शेर और शे'र को एक समझती थी।
''सच माँ, तुम भी शायर बन जाओ। फिर तुमसे सब डरेंगे। फिर मकान मालिक तंग नहीं करेगा। बनिया उधार भी देगा और रात को हमको भूखे नहीं सोना पड़ेगा। माँ, फिर तुम भी शेर लिखा करोगी न ?''
''ऐ, चुप कर ! तुझे क्या पता...? चली है माँ को शायर बनाने ! अरे, जो मेहनत-मजदूरी करके रूखी-सूखी नसीब हो जाती है, वह भी नहीं मिलेगी। अरे, तुम्हें क्या पता, आजकल तो कागज भी रोटी से मंहगे हो गए हैं। तुम्हारे बापू को चढ़ा था शौक शायर बनने का। जो कच्चा कोठा था, वह भी उसने बेच दिया। किताब छपवाने के शौक में हमारे सिर पर से छत भी छीन ली। किताब छपवाकर जैसे उसने रातोंरात अमीर बन जाना था।'' माँ बड़बड़ा रही थी। स्कूल की कॉपी-किताबें खरीदने की सामर्थ्य नहीं थी इसलिए उसने दोनों लड़कियों को स्कूल से उठा लिया था और तीसरी को तो स्कूल में डाला ही नहीं था। माँ के सामने उसकी और अपनी बेटियों के जीवन की अधूरी कहानी के दुखांत का शेर दहाड़ रहा था !
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(2) पुरस्कार

''मैंने तो हमेशा तुझे खुशी-खुशी नाचते देखा है। सब तेरे नृत्य की प्रशंसा करते हैं। फिर भी तू इतना उदास क्यों है ?'' मोर को उदास देखकर एक दिन कोयल ने प्रश्न किया।
''देख न, बहन कोयल ! जिस डांसर को राष्ट्र्पति पुरस्कार मिला है, वह तो मेरे पासंग भर भी नहीं।''
''और जिस गायिका को पुरस्कार मिला है, वह...'' इतना कहते हुए कोयल ने आह भरी और अपनी मीठी आवाज़ में 'कू... कू...' बोल उठी।
''हम हर समय नाचते हैं इतना सुंदर नृत्य किसी और का नहीं। फिर भी, हमें तो कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला। किसी ने कभी सम्मानित नहीं किया। उलटा हमें मार कर हमारे सुंदर पंखों को नोच लेते हैं।'' उदासी मोर की आँखों में से आँसू बन कर टपक रही थी। उसके आँसू ज़मीन पर गिर कर व्यर्थ जाते, इससे पहले ही मोरनी आयी और उसने मोर की आँखों में से गिर रहे आँसुओं को अपनी चोंच से पी लिया। मोरनी को आँसुओं के मोती चुगते देखकर मोर खिल उठा।
''मैं भी कितना पागल हूँ ! आदमियों की नकल करके, उनकी तरह झूठे इनामों के पीछे दौड़ रहा था। सबसे बड़ा सम्मान तो मेरे पास है।'' और वह मोरनी की ओर देखकर मुस्करा उठा। कोयल 'कू... कू...' कर गीत गाने लगी थी।
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(3) होम-वर्क

''रचना, अभी खत्म नहीं हुआ तेरा होम-वर्क ?'' बड़े से बस्ते में से बहुत-सी किताबें फैलाये बैठी होम-वर्क करती छोटी-सी रचना से मैंने पूछा।
''नहीं आंटी, अभी तो सवाल करने हैं, हिंदी का होम वर्क भी करना है। इंग्लिश की डिक्टेशन लर्न करनी है।'' छोटी-सी लड़की के सिर पर होम वर्क की बड़ी-सी गठरी थी।
''किस क्लास में पढ़ती है रचना ?''
''थर्ड बी में, आंटी !'' उसकी किताबों-कापियों से ठुंसे हुए बस्ते की ओर देखकर मुझे हैरानी हो रही थी।
''ये सारी किताबें तेरी हैं ?'' मेरे सवाल पर वह हँस रही थी। मुझे अपना जमाना याद आया रहा था। हमारे वक्त में तो बस थोड़ी-सी किताबें होती थीं। वे भी खरीदकर देते वक्त माँ बड़-बड़ करती थी।
''अच्छा रचना ! तेरा भाई भी तेरे स्कूल में ही पढ़ता है ?''
''नहीं आंटी, वह हाई स्कूल में जाता है। आंटी, जब मैं हाई स्कूल में जाऊँगी तो डैडी मुझे भी साइकिल ले देंगे। फिर मैं अपना बस्ता साइकिल के कैरिअर पर रखकर जाया करूँगी।''
''अच्छा, हाई स्कूल पास करके फिर क्या करोगी ?''
''फिर मैं कालेज जाऊँगी। रीतू बुआ की तरह।''
''कालेज के बाद क्या करोगी ?'' मेरा ख़याल था कि वह झट कह देगी, फिर मेरी शादी हो जाएगी। पर, मेरी सोच के उलट रचना के अंदर दबी-छिपी ख्वाहिश सहज भाव से प्रगट हो गई- ''फिर ... फिर... आंटी, मैं खूब खेलूँगी।''
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(4) रोबोट

दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। उनमें एक वैज्ञानिक था, दूसरा इतिहास का अध्यापक। वैज्ञानिक कह रहा था, ''देखो, साइंस ने कितनी तरक्की कर ली है। जानवर के दिमाग में यंत्र फिट करके, उसका रिमोट हाथ में लेकर जैसे चाहो जानवर को नचाया जा सकता है।''
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक गधा लेकर आया। रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़कर वह जैसे-जैसे आदेश देता, गधा वैसा-वैसा ही करता। वह कहता, ''पूंछ हिला'', गधा पूंछ हिलाने लगता। वह कहता, ''सिर'', गधा सिर हिलाने लगता। इसी प्रकार, वह दुलत्तियाँ मारता, 'ढेंचू...ढेंचू...' करता। लोटपोट हो जाता। जिस तरह का उसे हुक्म मिलता, गधा उसी तरह उसकी तामील करता। वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था।
वैज्ञानिक का मित्र जो बहुत देर से उसकी बातें सुन रहा था, गधे के करतब देख रहा था, चुप था। उसके मुँह से प्रशंसा का एक शब्द भी न सुनकर वैज्ञानिक को गुस्सा आ रहा था कि उसका मित्र इतनी बड़ी अचीवमेंट पर भी चुप था। आखिर उसने झुंझलाकर जब उसकी चुप्पी के बारे में पूछा तो इतिहास का अध्यापक कहने लगा, ''इसमें भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है ? एक गधे के दिमाग में यंत्र फिट कर देना... मैं तो जानता हूँ, हजारों सालों से आदमी को मशीन बनाया जाता रहा है। आदमी के दिमाग में यंत्र फिट करना कौन-सा मुश्किल काम है ?''
वैज्ञानिक हैरान था कि एक साधारण आदमी इतनी अद्भुत बातें कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हजारों साल से आदमी का दिमाग कैसे मशीन बनाया जाता रहा है। अपने मित्र की हैरानी को देखकर इतिहास का अध्यापक बोला, ''आ, मैं तुझे एक झलक दिखलाता हूँ।''
वे दोनों सड़क पर चलने लगे। अध्यापक ने देखा, एक फौजी अंडों की ट्रे उठाये जा रहा था। उसने उसके पीछे जाकर एकाएक 'अटेंशन' कहा। 'अटेंशन' शब्द सुनते ही फौजी के दिमाग में भरी हुई मशीन घूम गई जो न जाने कितने ही साल उसके दिमाग में घूमती रही थी। वह भूल गया कि अब वह फौज में नहीं था, सड़क पर अंडों की ट्रे ले जा रहा था। 'अटेंशन' सुनते ही वह सावधान की मुद्रा में आ गया। अंडे हाथों से गिरकर टूट गए।
इतिहास का अध्यापक ठंडी साँस भरकर बोला, ''यह है आदमी के दिमाग में भरा हुआ अनुशासन का यंत्र। इसी तरह धर्म का, सियासत का, परम्परा का, सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़कर आदमी दूसरे आदमियों को 'रोबोट' बना देता है।'' उसकी आँखों के सामने जख्मी इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
''तुमने तो एक गधे को नचाया है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि हिटलर के हाथ में कौन-सा रिमोट कंट्रोल था जिससे उसने एक करोड़ बेगुनाह यहुदियों को मरवा दिया था !''
अब वैज्ञानिक चुप था।
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(5) हरा चश्मा

गऊ दान की महत्ता सुनकर एक सेठ ने गाय दान की। जिसको गाय दान में मिली, वह शहर की गंदी-सी बस्ती में रहनेवाला बहुत गरीब मजदूर था। उसकी कौन-सी ज़मीन थी, जहाँ हरा-भरा घास होता। उसकी बस्ती के आसपास कहीं भी हरियाली का नामोनिशान न था। गाय उसे दान में मिली थी, घास नहीं। उसने गाय को खिलाने के लिए उसके आगे सूखा घास रखा। अमीर की गाय ने सूखा घास देखकर मुँह फेर लिया। गाय किसी भी हालत में सूखा घास खाने के लिए तैयार नहीं थी। आदमी ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और मिन्नत भरे स्वर में बोला, ''हे गाय, तू तो गऊ माता है। मैं तेरी पूजा करूँगा।'' पर गाय थी कि टस से मस नहीं हुई। वह दो दिनों से भूख-हड़ताल पर डटी हुई थी। आदमी डर रहा था कि अगर गाय को कुछ हो गया तो गौ-हत्या का पाप उसके सिर लगेगा। उसके भीतर के संस्कार उसे डरा रहे थे।
उस आदमी को इस प्रकार परेशान और गाय की मिन्नत-चिरौरी करते देखकर किसी ने उसे गाय की आँखों पर हरा चश्मा बांधने की सलाह दी। उसने ऐसा ही किया। हरे कागज की ऐनक बनाकर उसने गाय की आँखों पर लगा दी। अब गाय की आँखों के आगे सूखे घास की जगह हरा घास था। गाय खुश थी, आदमी खुश था, पर उस गरीब आदमी का पढ़ा-लिखा बेरोजगार बेटा उदास था। जब उससे उसकी उदासी का कारण पूछा गया तो वह रुआंसा -सा होकर बोला, ''मुझे तो जी सचमुच ऐसा लगता है कि हम लोकतंत्रीय गायें हैं। वे हमारी आँखों पर उम्मीदों का हरा चश्मा लगाकर हमसे वोट ले जाते हैं और हम सूखे को हरियाली समझ लेते हैं।''
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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

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