संपादकीय

>> मंगलवार, 3 अप्रैल 2012





पंजाबी में विश्व की श्रेष्ठ कहानियों को टक्कर देने वाली अनेक कहानियाँ मौजूद हैं…


पंजाबी साहित्य में विश्व की दूसरी भाषाओं की श्रेष्ठ कहानियों को टक्कर देती एक नहीं, अनेक कहानियाँ लिखी गईं। यह क्रम पंजाबी की प्रथम कथा पीढ़ी के लेखकों से लेकर पंजाबी में इस समय सक्रिय चौथी कथा पीढ़ी के लेखकों में बरकरार है। संत सिंह सेखों, सुजान सिंह, दुग्गल, संतोख सिंह धीर, महिन्दर सिंह सरना, कुलवंत सिंह विर्क लेखक पंजाबी कहानी को विश्व स्तर की कहानी तक पहुँचाने में कामयाब रहे। इस परम्परा को आगे की पीढ़ी के कथाकारों ने भी बनाये रखा जैसे नवतेज सिंह, रामसरूप अणखी, प्रेम प्रकाश, अजीत कौर, गुरबचन भुल्लर, मोहन भंडारी, गुरदेव रूपाणा, किरपाल कजाक आदि अनेक नाम हैं।
पंजाबी की अग्रज कथा पीढ़ी में कुलवंत सिंह विर्क का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने पंजाबी कहानी को एक अलग पहचान भी दी। उनकी कई शाहकार और यादगार कहानियाँ हैं जैसे- धरती हेठला बल्द, खब्बल, कष्ट निवारक, छाहवेला, दुध दा छप्पड़, तूड़ी दी पंड, उजाड़ आदि। लेकिन इनमें सबसे अधिक ‘धरती हेठला बल्द’ और ‘खब्बल’ को लेकर जितनी बात की गई, और इनका हिंदी व अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ, उतनी चर्चा उनकी कहानी ‘कष्ट निवारक’ की नहीं हुई। नि:संदेह ‘धरती हेठला बल्द’ और ‘खब्बल’ अविस्मरणीय कहानियाँ है, लेकिन विर्क की कहानी ‘कष्ट निवारक’ भी किसी रूप में कम अविस्मरणीय कहानी नहीं है। यह कहानी अन्य कहानियों की चर्चा के नीचे जैसे दब कर रह गई। कमजोर, गरीब और असहाय व्यक्ति का शोषण ऊपर से नीचे तक हर व्यक्ति के हाथों होता है, इस बात को विर्क ने अपनी इस छोटी-सी कहानी ‘कष्ट निवारक’ में जिस प्रकार व्यक्त किया है, वह प्रशंसनीय है और कलात्मक पक्ष से भी श्रेष्ठ है। अपनी बात को बेहद खूबसूरत ढंग से एक कलात्मक स्पर्श देते हुए कहने का अंदाज कुलवंत सिंह विर्क को बखूबी आता था, इसलिए उनकी कहानियों के पंजाबी में ही नहीं, हिंदी में भी बहुत से प्रशंसक आज भी मौजूद हैं।
इस अंक में ‘पंजाबी कहानी : आज तक’ के अन्तर्गत पंजाबी के इसी प्रख्यात लेखक यानि कुलवंत सिंह विर्क चर्चित कहानी ‘कष्ट निवारक’ का हिंदी अनुवाद हम प्रस्तुत कर रहे हैं। ‘पंजाबी कहानी : नये हस्ताक्षर’ के अन्तर्गत जसवीर राणा की बहु-चर्चित कहानी ‘चूड़े वाली बांह’ प्रकाशित कर रहे हैं। ‘आत्मकथा/स्व-जीवनी’ के अन्तर्गत पंजाबी के वरिष्ठ लेखक प्रेम प्रकाश की आत्मकथा ‘आत्ममाया’ को अगली किस्त के साथ-साथ आप पढ़ेंगे- धारावाहिक रूप से शुरू किए गए बलबीर मोमी के उपन्यास ‘पीला गुलाब’ की अगली किस्त…
आप के सुझावों, आपकी प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी…
सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब

Read more...

पंजाबी कहानी : आज तक



पंजाबी कहानी : आज तक(8)


कष्ट निवारक
कुलवंत सिंह विर्क
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


बस जल्दी जल्दी भर रही थी, इस बात से मैं खुश था। अगर जल्दी भर जाए तो कुछ मिनट पहले ही चल पड़ेगी। और फिर, भरी हुई बस को रास्ते की सवारियाँ उठाने के लिए नहीं रुकना पड़ता। मैं जल्द से जल्द दिल्ली पहुँचना चाहता था। करनाल से दिल्ली के लिए यह पहली बस थी। दुकानों और दफ्तरों के खुलने से पहले यह पहुँचा देती थी। दूसरी सवारियाँ भी मेरी जितनी ही उतावली लग रही थीं।
मेरे साथ वाली सीट पर एक ढली उम्र का किसान बैठा था। मेरा ध्यान बस के दरवाजे के साथ-साथ बाहर वाली रौनक पर भी था। मैंने उसकी ओर तभी ध्यान दिया जब उसने मुझे पढ़ा-लिखा समझकर पूछना शुरू कर दिया-
''यह बस कितने बजे चलेगी यहाँ से ?''
''छह बजे।''
''अब कितने बजे हैं ?''
''बस, छह बजने ही वाले हैं।''
''पानीपत कितनी देर में पहुँच जाएगी ?''
''पौने घंटे में।''
''अड्डे से अफ़सरों के रहने की जगह कितनी दूर होगी ? मिल जाएगी मुझे ?''
''नज़दीक ही है। मैं तुम्हें वहाँ बता दूँगा।''
''उन्होंने मुझे सात बजे बुलाया है। पहुँच ही जाऊँगा तेरी दया से। मैं तो रात को ही अड्डे पर आ गया था। कहते थे- सवेरे बस जाएगी, तू उस पर चले जाना, वक्त से पहुँचा देगी।''
उसने बताया कि पानीपत में उसकी तारीख़ थी। चकबंदी के बड़े अफ़सर के आगे उसने अपील कर रखी थी। अफ़सर रहता तो अम्बाला में था, पर दौरे पर पानीपत आया हुआ था। उस इलाके में जिन-जिन लोगों ने अपील कर रखी थी, उन सबको उसने वहीं पर बुला रखा था।
''खराब ज़मीन मेरे हिस्से में डाल दी,'' उसने कहा, ''कहते हैं, तेरा हिस्सा यहीं पर आता है। और किसे यहाँ पर फेंके। बेकार ज़मीन सस्ती मिलती है, तुझे ज्यादा दे दी है। और क्या चाहिए तुझे ? पर वहाँ तो होता ही कुछ नहीं। मैं ज्यादा का क्या करूँ ? मैं गाँव में गरीब हूँ। लड़का भी अभी छोटा है। पहले बेटियाँ ही हुईं। अब इस ढलती उम्र में लड़का हुआ है। अभी बच्चा ही है। गाँव में मेरा कोई साथ नहीं देता। इसीलिए मुझे रगड़ा लग गया है। अब देखो, यह अफ़सर क्या फ़ैसला सुनाता है। इससे ऊपर, कहते हैं, कोई अपील नहीं।''
''पर चकबंदी का तो सुना है, यह कानून होता है कि जहाँ जिसका बड़ा टुकड़ा हो, वहीं पर उसकी सारी ज़मीन को इकट्ठा करना होता है।''
''वो तो ठीक है। पर मेरे चार जगहों पर छोटे-छोटे टुकड़े थे। जहाँ सबसे खराब टुकड़ा था, उसके साथ वाली सारी ज़मीन मुझे दे डाली। गाँव वाले कहते हैं - चैन से बैठा रह। अब फिर से सारा गाँव तुड़वाएगा क्या। सबको नये सिरे से मुसीबत में डालेगा। पहले ही बड़ी मुश्किल से काम खत्म हुआ है। लोगों को ठीक से जोतने-बोने दे। तू भी कुएँ में मिट्टी डाल। दाँतों तले जीभ दबा। संवारेगा तो खुद धीरे-धीरे संवर जाएगी ज़मीन ! बहुत मिल गई है तुझे। और क्या चाहिए ? पर मुझे तो वह ज़मीन काटने को दौड़ती है। वकील किया हुआ है। देखो, क्या होता है।''
''ठीक ही होगा।'' मैं झूठी तसल्ली देता हूँ।

बस में अब बहुत भीड़ हो गई थी। मगर भीड़ से अधिक अफरा-तफरी मची थी। आज सोमवार था। इतवार की छुट्टी होने के कारण बहुत से लोग दिल्ली से बाहर आए हुए थे जो अब जल्दी लौटना चाहते थे। बस के दोनों दरवाजों में से कई सवारियाँ अन्दर आने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन अन्दर सारी सीटें पहले ही भरी हुई थीं। फिर भी, सवारियाँ दरवाजे पर से हटती नहीं थीं। कोई तगड़ा आदमी धक्का देकर अन्दर घुस आता लेकिन बस में कोई जगह न पाकर फिर पीछे हट जाता।
जितने उतावले दरवाजे पर खड़े लोग अन्दर आने के लिए थे, उतने ही अन्दर बैठे लोग बस के चलने के लिए थे। वे कंडक्टर को बस चलाने के लिए आवाज़ें लगा रहा थे।
''बस, और कोई सीट नहीं,'' कंडक्टर ने चलने की तैयारी कर दरवाजे में खड़े लोगों से कहा।
''सीट क्यों नहीं ?... हमने टिकटें ले रखी हैं।''
''अरे, टिकटें ज्यादा काट दी क्या आज ?'' कंडक्टर ने टिकट काटने वाले मुंशी को आवाज़ दी, ''सोमवार है, अगर चैकिंग हो गई तो जुर्माना कौन भरेगा ?''
''नहीं, पूरी हैं। एक चिड़िया का बच्चा भी फालतू नहीं।'' बाहर बैठा मुंशी कागज-पत्र उसके हाथ में थमाते हुए बोला।
''तो फिर बिना टिकट सवारियाँ अन्दर आ गई होंगी।'' कंडक्टर ने जैसे माफी मांगी और फिर ऊँची आवाज़ में जैसे बस की दीवारों को सुनाते हुए बोला, ''जो भी बिना टिकट बैठे हैं, नीचे उतर जाएँ। टिकटवाले बेचारे बाहर खड़े हैं।''
कोई सवारी न हिली। अगर टिकट वाली सवारियाँ बाहर न भी खड़ी होतीं तब भी बस का चलना मुश्किल था। सीटों के बीच वाला रास्ता सामान से भरा पड़ा था। एक बुढ़िया इस रास्ते में नीचे ही बैठ गई थी।
''माई, उठकर सीट पर तो हो जा।'' कंडक्टर ने उसे ऐसे बैठा देखकर खीझते हुए कहा।
''भाई सीट हो तो पैरों में बैठने का भला मुझे कोई शौक चढ़ा है।''
एक स्त्री ने अपने तीन बच्चों समेत दो सवारियों वाली सीट घेर रखी थी। दो बच्चे तीन साल से छोटे थे इसलिए टिकट एक की ही थी।
''बच्चों को गोद में ले लो। आधी टिकट के लिए कोई सीट नहीं।'' कंडक्टर ने कहा।
एक बच्चे को बुढ़िया ने गोद में ले लिया और दो को उनकी माँ ने और इस प्रकार रास्ते में से उठकर बुढ़िया सीट पर हो गई।
लेकिन बस चलने के अभी भी कोई आसार नज़र नहीं आते थे। बेटिकट लोग सीटों पर से उठने का नाम ही नहीं लेते थे।
''अपनी अपनी टिकटें निकालो,'' कंडक्टर ने आवाज़ दी और आगे बैठी एक सवारी की ओर हाथ बढ़ाया।
''टिकट तो अभी लेनी है।'' सवारी ने धीमे से कहा।
''नीचे उतर कर लो फिर पिछली गाड़ी की। बस को यूँ ही लेट कर रहे हो। किसी किनारे भी लगाना है बस को कि झगड़े में ही दिन बिता देना है।'' कंडक्टर गुस्से में बोला।
''जल्दी पहुँचना था, सामान ऊपर पड़ा है।''
''नीचे उतर कर जल्दी उतार लो, नहीं तो दिल्ली पहुँच जाएगा। टिकट ली नहीं, कुछ किया नहीं, सामान ऊपर टिका दिया।''
बेटिकट सवारियों के कान खड़े हो गए। एक-एक करके सब खिसकने लगीं। छत पर से सामान के उतरने का शोर सुनाई देने लगा। सीटों के बीच वाले रास्ते से पड़ा सामान कुछ सीटों के नीचे और कुछ-कुछ छत पर पहुँचा दिया गया। बस, एक सवारी का फ़र्क़ रह गया।
एक नई बैठी सवारी से कंडक्टर बोला, ''तुम अपना टिकट दिखाओ।''
टिकट पिछली बस का था।
''लो, हमें क्या मालूम।'' सवारी बोली।
''टिकट के ऊपर बस का नंबर लिखा हुआ है। नीचे उतर कर उसमें बैठ जा। वो पीछे खड़ी है।'' फिर उसने खिड़की के पीछे बैठे मुंशी से कहा, ''अभी से नई टिकटें काटनी शुरू कर दीं ? सवारियाँ इधर घुसी आ रही हैं।''
''तूने तो लगता है आज बस अड्डे में से निकालनी ही नहीं। हम क्या सारा काम ठप्प कर दें। पाँच मिनट लेट हो गया तू।''
''बस हो गया हिसाब। चल रहे हैं अब।'' कंडक्टर ने मुँह बनाते हुए कहा और बस के चलने के लिए सीटी बजा दी।
''रोक के....रोक के...'' एक सूट-बूट धारी आदमी ज़ोर से चीख उठा और उछलकर अपनी सीट पर से दूर हटकर खड़ा हो गया।
''क्या बात हो गई ?'' कंडक्टर ने हैरान होकर पूछा।
''यहाँ पर किसी ने उल्टी कर रखी है। मैं नहीं बैठ सकता यहाँ। पहले इसे साफ करवाओ।''
''उल्टी किसने कर दी ?'' कंडक्टर ने अविश्वास में भरकर कहा। शायद किसी मुसाफिर ने रात को की थी या फिर सुबह-सुबह डीज़ल की बदबू के कारण कोई बैठते ही कर-कराकर एक ओर हो गया था। मुँह बाहर निकालकर कंडक्टर ने मुंशी से पूछा, ''स्वीपर खड़ा है क्या यहाँ कहीं ?''
''नहीं, दिखाई तो नहीं दे रहा। आता ही होगा।''
स्वीपर की प्रतीक्षा में एक अनिश्चित समय के लिए बस को कैसे रोका जा सकता था ? पर एक पढ़ी-लिखी सूटेड-बूटेड सवारी को सीट दिए बिना कंडेक्टर बस को चला भी कैसे सकता था ? अधिक देर हो जाने के डर से वह घबरा उठा था। सारी सवारियाँ अधीर हो रही थीं। पर किसी को कोई राह नहीं सूझ रहा थी।
मेरे पास बैठा किसान यह तो समझ गया कि अब और देर लगेगी, लेकिन उसे यह मालूम नहीं था- क्यों ?
''अब चलाते क्यों नही ? क्या अड़चन पड़ गई अब ?'' उसने मुझसे पूछा।
मेरे कुछ बताने से पहले ही कंडक्टर ने उसके पास आकर कहा, ''भाऊ, जरा उठना यहाँ से।''
''क्यों क्या बात है ?'' किसान ने सीट पर से उठते हुए पूछा।
''आ, तुझे आगे सीट देता हूँ।'' वह उसे पकड़कर आगे ले गया और इशारे से उस सूट-बूट धारी आदमी को उस किसान की सीट पर बैठने के लिए कहा।
उल्टी वाली सीट के पास ले जाकर कंडक्टर ने कहा, ''ले, बैठ जा यहाँ।''
फिर उसने खुशी में ज़ोरदार सीटी बजाई और बस चल पड़ी।

''यह सीट तो गन्दी है, मैं नहीं बैठूँगा यहाँ।'' किसान चिल्ला उठा।
''थोड़ी देर दाँतों तले जीभ रख। अगले अड्डे पर दूसरी सीट दे देंगे।'' कंडेक्टर ने हल्की-सी शरारत के साथ मुस्कराते हुए कहा।
किसी ने भी कंडेक्टर को नहीं टोका। बल्कि सभी ने राहत की साँस ली। बस लेट न होने देने के कारण हम सब उस पर खुश थे। मुश्किल से तो कष्ट-निवारक मिला था एक!

00

कुलवंत सिंह विर्क
जन्म : 20 मई 1920, निधन 24 दिसम्बर 1987
पंजाबी की प्रथम कथापीढ़ी के एक सशक्त लेखक। विर्क ने पंजाबी साहित्य की झोली में कई यादगार कहानियाँ डाली हैं -'धरती हेठला बल्द', 'छाहवेला', 'दुध दा छप्पड़', 'कष्ट निवारक', 'खब्बल' 'तूड़ी दी पंड' 'दो आने दा घा' 'शेरनियाँ' आदि कभी न भुलाई जाने वाली कहानियाँ हैं। 'छाहवेला', 'धरती ते आकाश', 'तूड़ी दी पंड', 'दुध दा छप्पड़', 'गोहलां' और 'नवें लोक' उनके कहानी संग्रह हैं। वर्ष 1968 में साहित्य अकादमी, पुरस्कार से सम्मानित।

Read more...

पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर


पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर(5)


चूडे वाली बांह
जसवीर सिंह राणा

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

दिमाग में बन रही तस्वीर की ओर देखते हुए मैंने माचिस को तीली छुआ दी।
जीभ पर रखी कपूर की टिकिया लप-लप जल उठी। मैंने जीभ और बाहर निकाल ली। नाक के ऊपर से फिसलती नज़र आग की लपट पर जा टिकी। टांगों में जान भर गई। नसों में खून दौड़ने लगा। लपट की तरह लहकती औरत मेरी जीभ पर नाच रही थी। मैं खुशी में झूम उठा। मन में एक तरंग सी उठी। बांहें हवा में लहरा उठीं। पर साली खाँसी छिड़ गई। कपूर की टिकिया फिसलकर धरती पर जा गिरी। जीभ तालू से जा चिपकी। साँस था कि उखड़ता ही चला गया। मैं चारपाई पर जा गिरा। शरीर सांपिन की तरह बल खाने लगा। जब खाँसी टिकी, मैंने धीरे-धीरे ऑंखें खोलीं। दिल गा उठा, ''रन्न नहा के छप्पड़ चों निकली... सुलफे दी लाट वरगी...।''
आग की लपट में से औरत देखने की जुगत मैंने राम आसरे से सीखी थी। बड़ा स्कीमी बन्दा था वह। मुझे अक्सर समझाता रहता, ''जैसे ही दिमाग में तस्वीर बने, जीभ पर आग जला लिया कर।... ज्यों ही लौ में से नाचती औरत नज़र आने लगे... तो समझ ले तुझे राम का आसरा मिल गया...।''
उसकी बात सुनकर मैं उससे भी ज्यादा जोर-जोर से हँसने लग पड़ता।
जिस दिन बहुत उदास होता, मैं राम आसरे के पास जा बैठता। वह बान की ढीली-सी चारपाई पर लेटा पड़ा होता। चारपाई पर लेटे-लेटे बीड़ी पीना उसका स्टाइल था। मुझे बैठने का इशारा कर वह एक लम्बा-सा कश खींचता और फिर धुआं ऊपर की ओर छोड़ देता। जब धुआं नीम के पत्तों से टकराता, वह थूक की पतली धार धरती पर दे मारता और कहता, ''बग्गे !...अब तो साली नीम की छांह भी कड़वी लगने लग पड़ी...।''
''हाँ...'' मुझे पकड़ाई बीड़ी का कश खींचकर मैं उसे वापस कर देता। आखिरी कश खींचने से पहले वह मुझे एक जादूगर की तरह कहता, ''ले, अब मेरी ऑंखों में देखना... धुआं निकलेगा।''
मैं टकटकी बांध लेता। राम आसरा मुझे शिवजी की तरह लगने लगता। उसके नथुनों में से निकलती धुएं की लकीरों के साथ मेरी नज़र उसकी ऑंखों में धँसने लगती। ठीक इसी पल वह बीड़ी का जलता हुआ सिरा मेरे हाथ को छुआ देता।
''ओए... तेरी माँ...!'' मेरी चीख गाली में बदल जाती।
''न, न बग्गे ! गाली मत निकाल ऐसे... ये तो साले अपनी जुगतें हैं!... तू तो बीड़ी के सेक से ही तड़फ गया... इधर देख, यहाँ नागिन डंक मारती है, नागिन !...'' नागिन के डंकों से डसी जीभ बाहर निकालते हुए राम आसरा नीली हुई गर्दन पर हाथ फेरने लगता।
वह मेरा यार था। हमारी कई रगें साझी थीं। मेरा बाप नेक नशेड़ी काली नागिन का आशिक था। वह सारी ज़मीन अफीम की भेंट चढ़ाकर मरा। ज़मीन बगैर हमारी गति नहीं हुई थी। जब तक माँ जिन्दा रही, रोटी की खातिर मैं बिरादरी वालों की मेंड़ों पर फिसलता रहा। जिन दिनों गेहूं-जीरी(चावल) की फसल काटकर खोबड़ों में आग लगाई जाती, हाथों में माचिस थामे मैं आसमान की ओर उठते धूएं को देखता रहता। मेरी तन्द्रा उस वक्त टूटती जब शहर में दिहाड़ी करके लौटा राम आसरा ऊँची आवाज में गाता हुआ सड़क पर से गुजर जाता, ''इक जट्ट दे खेत नूं अग्ग लग्गी... देखां आके कदों बुझावंदा ई....।''
उसकी तुक सुनकर मुझे घबराहट होने लगती। मेरी नज़र फटने लगती। खत्तों की आग सड़क पर जा चढ़ती। फिर, घरों की तरफ दौड़ने लगती। माचिस जेब में ठूंस, मैं तेज कदमों से गाँव की ओर चल पड़ता। जैसे ही, बस-अड्डे की चौकड़ियों के निकट पहुँचता, सामने से आता मीता टकरा जाता। मुझे देखते ही वह कहने लगता, ''वहाँ आग लगाकर छोड़ आया तू... थोड़ा ठहरकर वहाँ से चलता।... घर जाकर क्या तूने आग बुझानी है !''
मेरा अन्दर जल उठता। पहले तो दिल में आता कि साले के पजामे में आग लगाकर रावण की तरह फूंक दूँ। सीता की तरह हमारी सारी ज़मीन चुरा कर ले गया था। पर दूसरा ही पल मेरे हाथ बांध देता। कितने सितम की बात थी ! क्ई बार जब किसी दूसरे के यहाँ काम न मिलता, मुझे विवश होकर मीते के उस खेत में ही काम करवाना पड़ता जो कभी हमारा हुआ करता था।
''नहीं बग्गे !...अब यहाँ तेरा कुछ नहीं।... हाँ, एक मर्जी ही है जो सिर्फ तेरी है। मैं तो कहता हूँ, छोड़ शरीको को... मर्जी का मालिक बन यार !...आ जा, मेरे साथ चल।'' राम आसरे की बात मानकर मैं उसके संग शहर में दिहाड़ी पर जाने लग पड़ा था।

सूरज चढ़ते ही हम साइकिल उठा शहर के लेबर-चौक में जा खड़े होते। कई बार तो दिहाड़ी मिल जाती, पर कई बार हम जानबूझकर दिहाड़ी पर न जाते। राम आसरा दलील देता, ''न कोई तेरे पीछे है, न मेरे।... फिर यूं ही किसके लिए खून-पसीना बहाते हैं।... चल, आज खोखे पर बैठकर ऑंखें सेंकते हैं।''
खोखे पर शाम तक चाय के कई दौर हो जाते। बीड़ी सुलगती रहती। चौक में से गुजरती एक-एक औरत का चेहरा हमारे दिमाग में अंकित होता रहता। रोटी की भूख से अधिक कोई दूसरी भूख ही हमें तंग करती रहती। जिस दिन मैं राम आसरे के साथ फिल्म देख आता, उस दिन तो हालत अजीब हो जाती। सारी रात उसके पास ही बैठा रहता। गई रात तक हम दोनों आग की लपट में नाचती हुई औरत देखते रहते। जब हर चेहरा मध्दम पड़ने लगता, राम आसरा चिलम में सुल्फा भर लेता। हर सुट्टे के साथ दिमाग में 'गिध्दा' पड़ने लगता। जब नशा हावी हो जाता, कहीं दूर से आती आवाज सुनाई देती-
''रन्न(औरत) नहा के छप्पड़ विचों (पोखर में से) निकली... सुल्फे की लाट वरगी...।''
गा तो राम आसरा रहा होता, पर आवाज मुझे ताया की लगती। वह भी बहुत बड़ा सुल्फेबाज था। बदमाश किस्म का बंदा ! बदमाशियों के कारण चढ़ती उम्र में बाबा ने उसे घर से निकाल दिया था। जब अधिक तंग करने लगा, बाबा ने उसकी ज़मीन का हिस्सा उसे दे दिया। पर विवाह से पहले ही उसके अन्दर एक अजगर पैदा हो गया। वह ज्यादातर ज़मीन निगल गया। जब औरत की कमी उसको अन्दर ही अन्दर खाने लगी, वह घर की तलाश में भटकने लगा। राम आसरे का बापू बान बंटने का काम करता था। कई बार ताया शराब के नशे में कहने लगता, ''यार कोई ऐसी रस्सी बंट जिससे घर बांधा जा सके...।''
उसकी बात सुनकर राम आसरे का बापू रुआंसा हो उठता, पर ऊपरी तौर पर जोर से हँसने लगता, ''ओए, इन रस्सियों से तो खाट मुश्किल से बंधती है। घर बांधने वाली रस्सियाँ तो दूसरी ही होती हैं।...''
''अच्छा !... ठीक है... ठीक है।'' जल्दी-जल्दी सिर मारता ताया सोच में पड़ जाता मानो उसे सारी बात समझ में आ गई हो।

पहले पहले मुझे एक बात समझ में नहीं आती थी। वह यह कि ताया कुत्तों के पीछे क्यों पड़ता था। जैसे ही गली में कोई कुत्ता नज़र आता, वह बेचैन हो जाता। उसकी ऑंखें ईंट-पत्थर का टुकड़ा खोजने लगतीं। उस वक्त तो वह पागल हो जाता था, जब वह किसी कुत्तिया के पीछे कुत्तों का समूह चलते हुए देखता। बस, फिर तो ताया का हाथ होता, बारह पोरी की लाठी होती। गली में गूंजती ललकार कुत्तों को सरपट भागने को मजबूर कर देती। जब फेंककर मारी लाठी भागते कुत्तों की टांगों पर बजती, दूर तक 'चऊँ-चऊँ' की आवाज गूंजती चली जाती। ऑंखें लाल किए खड़ा ताया बहुत देर तक बड़बड़ाता रहता, ''साला, वो कुत्ता भी ज़रूर इन कुत्तों में ही है...।''
दानी को वह कुत्ता कहता था। वह कुत्ता जो उसकी घरवाली को भगाकर ले गया था। ज़मीन का अन्तिम टुकड़ा बेचकर ताया 'मोल की औरत' ले आया था। खरीदते समय दानी भी उसके संग गया था। पैसे तो ताया ने दिए, पर वह औरत दानी को दिल दे बैठी। जिस दिन वह भागी, उस दिन से ही ताया ने बैठक के इर्दगिर्द रस्सियाँ बांध-बांधकर कहना प्रारंभ कर दिया था, ''मेरा बंधा हुआ घर खुल गया यार... एक मिनट ठहरो... पहले बांध लूं इसे। फिर देता हूँ रोटी। पर, ये थाली में तो छेद हुआ पड़ा है।... वो जा रहा है कुत्ता !... लाना तो ज़रा लाठी...।''
''हाँ, मैंने गिराया था एक लाठी से। साला एक कुतिया के पीछे-पीछे जाता था। ये गुनाह माफी के लायक नहीं।... इसको सजा मिलेगी।'' उस दिन ज़ख्मी किए कुत्ते को घसीटे लिए जाता ताया ऊँचे स्वर में बोल रहा था।
मैं और राम आसरा उसके पीछे-पीछे चले जा रहे थे। हमारे बिके हुए खेतों में खड़ी शीशम के नीचे जाकर वह रुक गया। उसकी नज़र हमसे मिली। राम आसरे ने कमर में बांधी मजबूत रस्सी खोलकर ताया की ओर बढ़ा दी। अगले ही पल फांसी के फंदे में फंसा कुत्ता शीशम से लटक रहा था। एक पल के लिए मुझे उसकी शक्ल मीते जैसे प्रतीत हुई। उसकी बाहर निकली जीभ की ओर देख-देखकर ताया जोर-जोर से हँस रहा था, ''इस कुत्ते की मौत में मेरी जान छिपी हुई है।''

''कुत्ते की मौत मर गया बेचारा !'' जिस रात कुत्तों के झुंड के पीछे भागता ताया खारा कुएं में गिर कर मरा, मैं और राम आसरा जोर-जोर से रो रहे थे।
सबसे अधिक मैं उस दिन रोया था, जिस दिन राम आसरा मरा। उस दिन हम शहर तो गए थे लेकिन दिहाड़ी पर नहीं गए थे। कुछ दिन पहले हम दोनों को एक घर में दिहाड़ी का काम मिला था। वहाँ दिन-रात मकान बनाने का काम चल रहा था। एक रात जब हम टूटी पर पानी पीने गए, हमें उस घर के बाथरूम में नहाती हुई औरत दिखाई दे गई। दरवाजे की फांकों में से देखी चमक ने हमारी ऑंखों को अंधा कर दिया। हम दिहाड़ी करना भूल गए। काम को बीच में ही छोड़ हम चुपचाप अपने गाँव में आ घुसे। मैं आग की लपट में से वो चमक देखना चाहता था, पर राम आसरा था कि दिल पकड़ कर बैठ गया। बोला, ''मेरे तो यहाँ कुछ डस गया आज...।''
दिमाग में उस औरत की तस्वीर बनाकर देखने के बाद जब मैं चिलम का कश खींच रहा था, धुंधली ऑंखों से मैंने देखा- राम आसरा नई पकड़ी नागिन को टोकरी में से निकाल रहा था। जब से उस पर हर तरह के नशे ने असर करना बंद कर दिया था, तब से वह जीभ पर नागिन का डंक मरवाने लग पड़ा था। पूरा गाँव उससे दूरी बनाकर रहने लग पड़ा था। जहाँ कहीं भी कोई साँप या साँपिन देखी जाती, वहाँ सपेरे के स्थान पर राम आसरा जा पहुँचता। बस, कुछ मिनटों की जद्दोजहद होती, जानवर हार जाता, उसका डंक राम आसरे का पालतू बन जाता। जब दिल भर जाता, वह उसे मारकर नया जानवर पकड़ लाता। पर उसका डंक वह उस वक्त ही मरवाता था, जब उसे कोई जलवा देखना होता था।
''देख बग्गे !... इधर देख.... कंजर के... यूं ही डरे जाता है।...हम उनमें से नहीं जो रस्सी को साँप समझकर डर जाते हैं। अरे, हम तो साँप को रस्सी समझने वाले बंदे हैं।...देख... देख... नागिन का पहला झटका ! ... हे... हे... हे... आ...ह...अ... च...च ।'' नई नागिन को रस्सी की भांति उठाये खड़ा राम आसरा पहले डंक पर ही लड़खड़ाने लग पड़ा था।
मेरे हाथों में से चिलम छूट गई, उसके हाथों से नागिन।
मैं उठ कर खड़ा हो गया। राम आसरा धरती पर गिर पड़ा। जब मैंने उसका सिर अपनी गोदी में रखा, उसके मुँह में से झाग बहने लगी थी। उसकी जुबान लड़खड़ाने लग पड़ी, ''साली नागिन में उस औरत से भी तीखा जहर था... एक बार तो स्वर्ग देख लिया बग्गे !... हाँ, सच... हम प्रेत बनेंगे...।''
''औरत के लिए भटकता मरा... साला जरूर प्रेत बनेगा।''
''विष-पुरुष था साला !... चिता को आग देते समय हवा देख लेना, किस तरफ की है। उसका तो धुआं भी जहर से ज्यादा जहरीला होगा।''
राम आसरे की चिता को आग देने उमड़ा सारा गाँव ही एक डरी हुई बोली बोल रहा था।
पर मैं उस दिशा में खड़ा था जिधर धुआं जा रहा था। मेरा शरीर नीला पड़ता जा रहा था।

आज दोपहर से ही गली में कुत्ते रोते हुए घूम रहे थे। धन्ना बाबा कहा करता है- ये उस वक्त रोते हैं, जब इनको प्रेत दिखाई देते हैं। तो क्या राम आसरा और ताया प्रेत बन गए थे ? नहीं...नहीं... मैं तो....।
''क्या मैं तो, मैं तो किए जा रहा है ?...अच्छा, हम चलते हैं।'' आवाज तो राम आसरे और ताया की ही थी।
पर यह कैसे हो सकता है ? मैं दुविधा में पड़ गया। दिल हुआ कि चारपाई छोड़ दूंँ, पर चारपाई थी कि मुझे छोड़ ही नहीं रही थी। मैंने करवट बदली। चारपाई ने 'चरर-मरर' की आवाज की। बिलकुल यही आवाज थी। मुझे लगा, जैसे अभी कोई चारपाई की बाही पर बैठा था और अभी-अभी उठकर आगे बढ़ गया है। मैं डर गया। चारपाई घूमने लगी। मैं और अधिक दहल गया। चारपाई के इर्द-गिर्द चुड़ैलों की 'कीकली' पड़ने लगी। वे मुझे बुलाने लग पड़ीं। पर मैं चुपचाप पड़ा रहा। कुछ पल चुप्पी छायी रही, फिर 'गिध्दा' पड़ने लगा। मेरा नाम ले-लेकर बोलियाँ पड़ने लगीं-
''मैंनूं खिच लै वे बग्गिया... खिच लै तू चूड़े वाली बांह फड़ के...।''
''बग्गे... ओ बग्गे.... आ जा... बांह पकड़ ले मेरी...।'' कई चुड़ैलें मुझे हांकें मार रही थीं।
पर मैं बिलकुल न बोला। सांस तक रोक लिया। जब दम घुटने लगा तो पड़ता हुआ गिध्दा दूर होता चला गया।
''अच्छा हुआ बोला नहीं।... नहीं तो आज ले ही जातीं।'' उलझी हुई आवाजें सुनकर मेरी तंद्रा टूट गई।
मैं गरमी में भीगा पड़ा था। मुझे याद आया, मरने से पहले राम आसरे और ताया को भी चुड़ैलें दिखाई देने लग पड़ी थीं। तो क्या मैं मर रहा...।
नहीं... नहीं... मैं इस तरह नहीं मरुँगा। मैं तो...।

''मैं तो बुझा हुआ दीप हूँ, बग्गे !'' वह यही कहा करता था।
नाम तो उसका गुरदीप था, पर कच्चा नाम दीप था। पता नहीं क्यों मुझे उसका कच्चा नाम पक्के नाम से भी अधिक पक्का लगता। मैं उसे दीप ही कहा करता।
''बुझा हुआ दीप क्यों ?... तू कहे तो तुझे लपलपाती लपट बना देते हैं।''
लेकिन वह राम आसरे की जुगतों को पसन्द नहीं करता था। वैसे भी वह मुझसे ही अधिक खुला हुआ था। जिस बस पर वह ड्राइवर था, वह हमारे गाँव में से ही होकर गुजरती थी। शहर में जिस खोखे पर हम चाय पीते थे, कई बार वह भी वहाँ आ जाता। एक-दो बार जब राम आसरा दिहाड़ी पर गया हुआ था, मन उदास होने के कारण मैं खोखे पर ही बैठा रहा। जिस समय दीप आया, वह मुझसे भी अधिक उदास दिख रहा था। जर्दे की फंकी को बांटते हुए हमारी बात चल पड़ी। कई बातें उसकी और कई बातें मेरी हमारे दिलों पर डंक मार गईं। दुख साझा था, हम अंतरंग मित्र बन गए। कई बार वह हमें बस में मुफ्त ले जाता। साइकिलों पर हमारी टांगों की तुड़वाई होने से बच जाती। वह हमें अपनी सीट के पास बोनट पर बिठा लेता। जब बस टॉप गियर में होती, वह मुझे ऊपर की ओर इशारा करता। मैं उसके सिर के ऊपर लगे शीशे की ओर देखता। उसमें पीछे बैठी सवारियाँ दिखाई देतीं। शीशा किसी सुन्दर सी सवारी पर फिट होता। मैं दीप की ओर देखता। उसके चेहरे पर कुटिल-सी मुस्कान होती। उसकी ऑंख बार-बार शीशे से टकराती। जब शीशे में कैद सवारी उतरने लगती, दीप धीमे स्वर में गाने लगता-
''तेरी अक्ख हानणे नीं
अम्बरों उड़दे पंछी लाहुंदी....।''

वैसे वह मेरी तरह ही परकटा पंछी था। मैं जन्म से छड़ा था, वह ब्याहता छड़ा था। शराब पीने के बाद वह अक्सर कहा करता ,''लो, एक रात का भी कोई ब्याह होता है?''
उसकी बात सुनकर मेरे अन्दर एक रात का भी ब्याह हो जाने की इच्छा पैदा होने लगती। मेरे अन्दर उल्टे-सीधे विचार उठने लगते। दिमाग में सवालों-जवाबों की लड़ी चलने लगती। दीप की तलाकशुदा घरवाली का विवाह क्या मेरे साथ नहीं हो सकता ? वह अपने बड़े भाई की घरवाली का आशिक क्यों था ? उसका विवाह उसके साथ क्यों नहीं हुआ ? यदि पहली रात ही दीप को अपनी घरवाली में अपनी भाभी नहीं मिली तो दोष किसका था ? ये जायज़ रिश्ते नाजायज़ होते हैं या नाजायज़ रिश्ते जायज़ ? मेरी समझ में कुछ न आता। मैं दीप की तरह उलझ जाता। उलझन में फंसा वह अजीब किस्म की बेबसी जाहिर करने लगता, ''जब और कोई बात न हो सकी, मेरा मेरी घरवाली से तलाक हो गया। घरवालों ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया। पर मैं छाती ठोंक कर कहता हूँ कि उस औरत में औरत नहीं थी।''
''आदमी तो सबकुछ छोड़ देता है, पर आदमी को कुछ नहीं छोड़ता बग्गे !'' दीप की यह बात मेरे ऊपर एक वजन की भांति गिर पड़ती।
मेरे लिए सांस लेना कठिन हो जाता। मैं ऑंखें बन्द कर लेता। दीप पैग पर पैग चढ़ाने लगता। नशा बढ़ने से मेरा दिमाग घूमने लगता। दीप की घरवाली। उसकी भाभी। ताये की भागी हुई औरत। शीशे में से दीखती सवारियाँ। और बाथरूम में नहाती औरत ! एक-एक शै ऑंखों में उतरने लगती। कभी लगने लगता, मानो मैं गिध्दा डाल रहा होऊँ। कभी लगता, मानो भोंकने लगा होऊँ। जब होश आता, मुझे अपने आप में से एक गंध आने लगती। लम्बे-लम्बे सांस भरता मैं राम आसरे के साथ गाँव को जाती सड़क पर चलने लगता।
दीप के गाँव को जाती सड़क की धूल मुझे सुरमे जैसी लगती थी। पर वह खुद कभी कभी ही गाँव जाता था। अधिकतर ढाबों पर ही रातें गुजारता। जिस दिन दिल में हौल उठता, वह शराब से भरापूरा उस घर में जा घुसता, जहाँ उसका घर नहीं था। जबरदस्त झगड़ा होता। वह तड़के ही पहली बस पकड़ अपनी बस की ओर चल पड़ता। पर उस दिन वह चला नहीं था, दौड़ा था। कुछ रात का नशा था, पर टेंशन ज्यादा थी। जब खड़ी हुई बस चल पड़ी, अपनी आदत के अनुसार वह चलती बस के आगे वाली खिड़की को पकड़ने के लिए दौड़ा। बस की गति तेज हो गई थी। उसका हाथ छूट गया। जब बस रुकी, वह पिछले टायरों के नीचे से निकलकर सड़क पर बिछ गया था। खबर सुनकर मैं और राम आसरा भी लाश देखने गए थे। बाहर निकली ऑंखों से वह ऐसे देख रहा था मानो शीशे में दिखती सवारी को देख रहा हो। पता नहीं किसकी ऑंख ने उसे अम्बर पर से उतार लिया था। उस रात मुझे बड़ा डरावना सपना दिखाई दिया था। सपने में रात भर ऐसी बस चलाता रहा, जिसके कोई टायर ही नहीं था।
जब ऑंख खुली, पहले तो दीप की घरवाली याद आई। फिर, वह याद आया। मेरी आह निकल गई- ''तू भी बस, यूं ही चला गया वैरी !''
''छड़े बंदे की यही होनी है पुत्त !'' शायद ताया बोला था।
नहीं, गली में कुत्ता भौंका था। मैं द्वंद में पड़ गया। ध्यान से सुनने की कोशिश की। गुरद्वारे का पाठी पाठ कर रहा था। समझ में नहीं आया, यह क्या हो रहा था ? मैं तो अभी जीवित था। फिर मरने से पहले ही मेरा भोग क्यों डाला जा रहा था ? मेरा दिल बैठने लग पड़ा। सांसें धौंकनी की भांति चलने लगीं। अन्दर से कोई चीज गले की ओर रेंगने लग पड़ी थी। मैंने चारपाई के सिरहाने के नीचे हाथ मारा। कोई भी दवा हाथ न लगी। नशे वाले टीके भी खत्म हो गए थे। कपूर की टिक्की वाली जुगत भी आखिरी टीका लगाकर खेली थी।
''बाबुल, मेरी गुड़ियां तेरे घर रह गईं....।'' डोली में बैठा जाता राम आसरा फिर दिखाई देने लग पड़ा।
वह गा रहा था। साथ ही, हाथ में पकड़ी नागिन को रस्सी की तरह लपेटे भी दे रहा था। मेरा ताया और दीप दोनों अर्थी को उठाकर ले जा रहे थे। उनके पीछे मैं कुत्तों के संग चला जा रहा था। ज्यों ही अर्थी श्मसानघाट में प्रवेश करने लगी, मैं दूर भाग गया। कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए। उन्होंने मेरी टांगे-बांहें फाड़ दीं। हवा में दुर्गन्ध फैलने लगी।
मैंने अपना नाक ढक लिया। पर गंध अभी भी आ रही थी। टीके लगाकर छलनी हुई टांगें और बांहें साथ छोड़ रही थीं। मेरा दम घुटने लगा। मैं लम्बे-लम्बे सांस भरने लग पड़ा। ठीक वैसे, जैसे श्मसानघाट में लिया करता था।
श्मसानघाट वाली घटना हर तीसरे दिन घटा करती थी। शहर में दिहाड़ी लगाकर मैं शाम को गाँव की तरफ लौट पड़ता। जिस स्थान पर दीप का एक्सीडेंट हुआ था, वहाँ पहुँचकर मेरा साइकिल धीमा होने लगता। पीछे से झांझरों के छनकने का स्वर उभरने लग पड़ता। मैं साइकिल रोक लेता। हवा में से हँसने की आवाज आती। मैं सिर घुमाकर पीछे झांकता। लाल सूट पहने एक लड़की चली आती दिखाई देती। मेरी दिन भर की थकान उतर जाती। वह करीब आकर खड़ी हो जाती। मैं बोलना भूल जाता।
''मुझे ये तरखाण माजरे तक ही ले चल।'' वह मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर पीछे कैरिअर की बजाय आगे वाले डंडे पर उचक कर बैठ जाती।
मैं साइकिल की रेल बना देता।
पूरे रास्ते वह कुछ न बोलती। मैं उसका साथ पाकर आनन्द में डूबा वैसे ही कुछ न बोलता।
तरखाण माजरा दीप का गाँव था। गाँव के आते ही उसकी गोरी-चिट्टी बांह हरकत में आती। चलता हुआ साइकिल अचानक उलटा हो जाता। सड़क पर गिरा मैं ऑंखें फाड़-फाड़कर देखने लगता।
सिर रहित उस लड़की का धड़ अंधेरे में गुम होता चला जाता।
मेरी चीख निकल जाती। साइकिल उठा ज्यों ही भागने लगता, ''भागकर कहाँ जाएगा, बग्गे... मैं तो सारी सड़क पर ही बिछा हुआ हूँ...'' दीप की यह आवाज सड़क पर दूर-दूर तक गूंजती चली जाती।

''इस तरह के सीन दिखना और आवाजें सुनाई देना एक मानसिक बीमारी है। बाकी, मैं दवा लिख देती हूँ।'' खूबसूरत लेडी डॉक्टर की आवाज मेरे कानों में मिश्री घोलती चली गई थी।
मन का वहम दूर करने के लिए एक दिन मैं चैकअप करवाने चला गया था। ब्लॅड-प्रैशर चैक करने के लिए जब उसने मेरी बांह पकड़ी, मैं घोड़े जैसा हो गया। जब वह दवा की पुड़िया पकड़ाने लगी, मेरे मुख से अनायास ही निकल गया, ''बस जी!... अब दवाई की ज़रूरत नहीं...।''
घर पहुँचकर सारी रात मैं बांह का वह हिस्सा चूमता रहा था, जिस हिस्से को लेडी डॉक्टर ने पकड़ा था। उसके स्पर्श में फूलों जैसी खुशबू थी। वो खुशबू सूंघने के लिए मैंने बांह को अपनी नाक से छुआ लिया। पर मेरा अन्त:करण जलता चला गया। मैं उदास हो उठा। आंगन का सूनापन खाने को आने लगा।
''फूल खाने के लिए नहीं, सूंघने के लिए होते हैं।'' मेरी समस्या सुन, बालों में फूल टांके बैठी डॉक्टर मुस्कराई थी।
उसकी मुस्कराहट की धार बहुत तीखी थी। ज़ख्मी हुआ मैं फिर श्मसानघाट जा पहुँचा। वहाँ मन लगता था। बंदे का आखिरी ठिकाना फूलों की सेज बना पड़ा था। पक्के रास्ते। सीमेंट के बेंच। शैडों पर फूलों लदे बूटे। मैं एक बेंच पर बैठ मुर्दे जलाने वाले शैड की तरफ देखने लगा, पर उधर अधिक देर तक देख न सका। फटाफट उठा। जेब में से सेंट वाली शीशी निकाली और फूलों पर स्प्रे करने लग पड़ा। पर खुशबू पता नहीं कहाँ चली गई थी। मैंने सारी शीशी छिड़क दी लेकिन, खुशबू की जगह अजीब-सी बास। मैं पागल होने की स्थिति में पहुँच गया। सेंट की शीशी दूर फेंक दी। फूलों को तोड़-मरोड़ कर खाने लग पड़ा।
मुझे लगा जैसे कोई चारपाई के नीचे घुसकर बान की रस्सियाँ खोल-खोलकर खा रहा था। मानो कुत्ते जैसा कुछ मेरे अन्दर घुस गया था। और मानो सड़क की तारकोल मेरे ऊपर बिछती जा रही थी।
मैं बंद हो रही ऑंखों को खोलने की कोशिश करने लगा।
पर ऑंखें थीं कि...
''रे, तेरी तो ऑंखें भी गीली न हुईं, कोढ़ी ! रो ले, तेरा भाई था वो...।'' केसर की लाश पर गिरी पड़ी माँ विलाप कर रही थी।
जिस दन वह मरा, मैं ज़रा भी नहीं रोया था। ऐसी बात नहीं कि मुझे दुख नहीं हुआ। बड़ा दुख हुआ था। पर, पता नहीं क्यों मुझे रोना नहीं आया। कोई केसर की मौत से भी बड़ा दुख मेरे ऑंसुओं को पी गया था। बैठक में दीवार से पीठ टिकाये बैठा मैं फ्रेम में जड़ी उसकी फोटो वाला अखबारी लेख देख रहा था जिसमें लिखा था- ''चलता-फिरता मैरिज ब्यूरो - केसर सिंह नसराली।''
पर खुद वह छड़ा मरा और मुझे छड़ा मरने लायक छोड़ गया।
बड़ा अजीब केस था। सारे गाँव के आनंद-कारज (विवाह) करवाने वाले भाई जी का आनंद-कारज करवाने वाला कोई नहीं मिला था। वैसे, केसर हर वक्त कुछ खोजता-सा रहता था। मैं पूछता, ''क्या खो गया तेरा ?''
''अगर कुछ खोया नहीं तो खोजने में क्या हर्ज है।'' वह उल्टा ही जवाब देता।
सगे भाई होकर भी पता नहीं क्यों हमारी आपस में बनती नहीं थी। पता नहीं, हम किसका गुस्सा एक -दूसरे पर उतारते रहते थे। अगर केसर अन्दर होता तो मैं बाहर चला जाता। अगर मैं अन्दर होता तो वह दरवाजे की चौकड़ियों पर जा बैठता। पीछे बैठी माँ कलपती रहती, ''किस्मत तो मेरी जल गई... नाशपिटा, कोई भी ठीक न निकला।''
उसके कहे अनुसार सारा आवां ही ऊत गया था। पहले बापू का अमल(नशा), फिर टब्बर का बेज़मीन होना। और फिर हमारा छड़े रह जाना। ये सब माँ का न टूटने वाला दुख बन गया था। पहले तो वह इन दुखों से टक्कर लेती रही, पर बाद में उसके दिमाग में फर्क आ गया। फर्क उसकी मौत के साथ ही मिटा था। जिस दिन वह मरी, मैं अकेला रह गया था। केसर तो उससे पहले ही जा चुका था।
''मैं अब किधर जाऊँ ?'' मैं दिन रात सोचता रहता।
पर कोई ठौर नज़र न आती। एक जो थी, वह भी 'न हुई' बन गई थी। चन्नी का ख्याल आते ही मेरे मुख से गालियाँ निकलने लगतीं, ''कंजरी, साली !''
उसका प्यार तो पैसे के साथ था। तगड़े की छाती पर नागिन की तरह लोटने लगी। मेरे जैसा नंग उसका क्या लगता था। मैं जब भी जाता, वह गालियाँ बकने लग पड़ती। अगर कभी मन में आता, डंक मार देती। नशा तो उसमें बहुत था। पर जो बदचलनी वह करती, उससे सारा नशा जहर बन जाता था। अजीब किस्म की बेचैनी मेरा अन्दर फूंकने लगती। मैं रात-रात भर स्वयं को लाहनतें देता रहता, ''हराम का होगा अगर फिर कभी उसके घर में जाए...।''
''जिसका अपना घर नहीं होता, उसे बेगाना घर भी नहीं संभालता।'' शराब पीने के बाद ताया अक्सर कहा करता था।
माँ और बापू उसके साथ वही कुत्तेखानी करते थे, जो चन्नी मेरे साथ करती थी। हारकर मैंने राम आसरे की शरण ली थी। लेकिन माँ को मेरा उसके पास जाना अच्छा न लगता। वह रोकती रहती, ''रे बग्गे ! उसके पास न जाया कर।... वह तो मरजाणा विष पुरुष है। बरबाद हो जाएगा तू भी...।''
''और नहीं तो जात-कुजात तो देख ले, साले।'' मुझे रोकने में केसर भी आगे आ जाता था।
पर मुझे न रुकना था, न मैं रुका। मैं तो वहाँ जा पहुँचा था, जहाँ सब जात-गोतों का दुख एक बन जाता है। मेरे अन्दर कोई चीज थी जो मुझे फिरकी की भांति घुमाए रखती। वह चीज केसर के अन्दर भी घूमती रहती। तभी तो वह भी घर में नहीं बैठता था।
''ये घर है ?... तुम्हारी माँ का सिर !'' खीझा हुआ केसर सुबह-सवेरे ही खन्ने की ओर चल पड़ता।
मैं बिरादरी के लोगों के खेतों में काम करवाता घूमता रहता। केसर को यह बात बुरी लगती थी। वह बड़बड़ाता-सा रहता, ''साला, टुच्चा-कमीना! अच्छा लगता है, वहाँ शरीकों के खेतों में मजदूरी करता हुआ ?''
और मैं करता भी क्या। मेरे अन्दर एक ऐसा आदमी पैदा हो गया था जो कोई भी काम कर सकता था। जिन दिनों घुटनों के दर्द ने माँ को बिस्तर से लगा दिया था, मैं ही सब कुछ संभालता था। कपड़े धोता। बर्तन मांजता। जिस वक्त रोटी बनाने बैठता, लोगों के घरों में बन रहे परांठों की उठती महक मेरी रोटियों को आड़ा-तिरछा कर जाती। दाल-सब्जियों को लग रहा तड़का मुझे अन्दर तक छलका जाता। चूल्हे की आग देह में चढ़ने लगती। मोटी-मोटी रोटियाँ थाप कर मैं काम खत्म कर देता। कई बार तो रात की उतारी से ही सुबह का काम चलता। बिस्तर पर पड़ी माँ ताजी रोटियाँ उतारने को कलपती रहती। पर रात की बची रोटी को गरम करता हुआ केसर जोर-जोर से हँसकर कहता, ''कहते हैं- सिक्ख ने सिक्ख को मारी अक्ख... चक कड़ाही अन्दर रक्ख... तड़के उठकर नहाएंगे... तत्ती(गरम) करके खाएंगे।''
रोटी पर नमर्क-मिर्च छिड़क कर उसके ग्रास चाय के घूंट से गले से नीचे उतार कर वह बैठक में जा घुसता। मैं चोर निगाहों से देखता, वह दीवार से टंगे शीशे के सामने खड़े होकर पगड़ी बांधने लगता। मेरा हाथ सिर पर बंधे अंगोछे पर फिरने लगता। केसर मुँह में पगड़ी का एक सिरा दबाकर पहला पेच लगाने के बाद गोल गोल फेरे पर फेरा दिए जाता। पगड़ी इस तरह गोलाकार बन जाती मानो सिर पर स्कूटर का टायर रखा हो। तिरछा-सा झांक कर वह पता नहीं किसे सुनाकर कहता, ''इसे कहते हैं टोकरा स्टाइल पगड़ी !''
मेरी हँसी छूट जाती। मैं घूमकर दूसरी तरफ देखने लगता। अचानक ही 'फड़ाक' की आवाज आती। मैं सिर घुमाकर देखता। दूसरा सिरा छोटा रह जाने के कारण केसर सिर पर से पगड़ी उतार कर ठांय से नीचे दे मारता था। फिर, मुंडे हुए सिर पर अंगोछा लपेटता हुआ वह बाहर को चल पड़ता था, ''नहीं भई... बनी नहीं बात। साला आखिरी सिरा छोटा रह गया।''
उसके चले जाने के बाद मैं भी उसकी गिरी हुई पगड़ी को बांध-बांध कर देखता। पर केसर की तरह मैं भी पगड़ी बांधने में सफल न हो पाता। मैं उदास हो जाता। पर कई बार मुझे केसर में से एक आस की किरण नज़र आने लगती। मुझे लगने लगता कि एक दिन वह अपना और मेरा कुछ न कुछ ज़रूर करेगा। पर केसर था कि आखिर तक अपनी जिद्द पर अड़ा रहा। मेरे और अपने विवाह की बात तो वह करने ही नहीं देता था। उसका पारा हाई हो जाता, ''लोगों को रिश्ते के लिए किस मुँह से कहूँ !... यह बताऊँ कि हमारा बाप अमली था।... भाई बिरादरी वालों के साथ खेत-मजदूरी करता है।... साले, बेगानी बेटी को खिलाएगा क्या ?... नशों ने तो तुझे पहले ही खा रखा है... और फिर मेरी क्या अब उम्र है विवाह करवाने की !''
उसकी ठंडी-गरम बातें सुनकर मैं माँ की भांति चुप लगा जाता था। मन में आता कि केसर की जुबान खींच लूँ। अगर रिश्ता नहीं करवाना तो झूठा वायदा ही किए जाता। पर वह तो बड़ा कड़वा बंदा था। हर वक्त शराब पीता रहता। अगर माँ टोकती कि -''रे, दिन में तो हट जाया कर।'' तो ''नानक नाम चड़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला।'' कहता हुआ वह माँ के सामने लोगों से मिली मिठाई का ढेर लाकर रख देता।
पर खुद वह बिलकुल मीठा न खाता। मैं एक-एक चीज अपने विवाह की मिठाई समझ कर खा जाता था। जिस दिन किसी का रिश्ता करवाकर आता, शराबी हुआ केसर एक अजीब खेल खेलता था। पहले वह मुझे शराब पिलाता, फिर मीते को बेची अपनी ज़मीन की तरफ चल पड़ता। टयूबवैल वाले कोठे के पास जाकर साफ सी जगह देख बैठ जाता। बहुत देर तक बैठा रहता। मैं असमंजस की स्थिति में खड़ा रहता। बहुत देर बाद उसकी आवाज मेरे कानों में पड़ती, ''बग्गे ! यहाँ से बढ़िया से तिनके तो चुग जरा ! ... हम घर बनाएं...।''
वह स्वयं भी छोटे-छोटे तीले-तिनके चुगने लग पड़ता। फिर मजबूत से तिनके से धरती पर चार गङ्ढे खोदता। फिर उनमें एक ही लम्बाई के चार तिनके फंसा कर उन्हें पिलरों की भांति खड़ा करता। और फिर खड़े तिनकों पर चार लम्बे तिनके गार्डर की तरह लिटा देता। नशीली ऑंखों से मैं उसकी कलाकारी देख रहा होता। जब वह तीलों जैसे बारीक तिनकों से घर की छत चिन रहा होता, अचानक ही कहीं से हवा का एक झोंका आता और घर तिनका-तिनका होकर बिखर जाता। केसर की आवाज दूर-दूर तक गूंजती चली जाती, ''यह फूंक किसने मारी ?... किसने मारी है फूंक ?''
''मैंने नहीं मारी, केसर!...मैंने नहीं मारी...!'' उसकी फ़ना कर देने वाली आवाज सुनकर मैं गाँव की ओर दौड़ लेता।
वह बहुत समय तक हवा में मिट्टी के ढेले मारता रहता। सवेर होते ही सबकुछ भूल जाता। उसके चेहरे पर किसी रिश्ते की तलाश होती। अगर कोई रिश्ता न मिलता तो वह खन्ना बस-अड्डे पर सवारियों को हांके मारना शुरू कर देता, ''ओए आ जाओ... इकलाहा... ईसड़ू... नसराली... जरग... रौणी... जौड़ेपुल... भुरथला... रावणां... मलेर कोटला....आ जाओ भई...।''
हांके लगाता वह अपना माथा खुरचता रहता था। जिस दिन उसके माथे में उगे कैंसर में से खून की धार निकली, वह फोटो खिंचवाने की जिद्द करने लग पड़ा था। मैं ईसड़ू से फोटोग्राफर बुला लाया। माँ और मेरे संग उसने कई फोटो खिंचवाईं। जिस वक्त मौत की फ्लैश पड़ी, केसर फोटो बन फ्रेम में कैद हो गया था। भोग के अवसर पर महाराज की हुजूरी में रखी उसकी फोटो खासी पुरानी थी। टोकरा स्टाइल पगड़ी बांधे वह जबरन मुस्करा रहा था। उस फोटो में कोई रंग नहीं था। पूरी की पूरी फोटो ब्लैक एंड व्हाइट थी।
काफी समय तक मुझे उसकी मौत का यकीन नहीं हुआ था। हर पल उसकी आहट-सी आती रहती। उसकी मौत के बाद एक अजब घटना घटी थी। अपने बेटे के लिए रिश्ता पूछने एक आदमी हमारे यहाँ आया। दरवाजा खड़का। उसने आवाज लगाई, ''केसर ! घर में ही हो भाई !''
''नहीं भाई, केसर अब यहाँ नहीं रहता।'' माँ ने अन्दर से ही उत्तर दिया। उसकी बात में पता नहीं क्या था, मैं आर्तनाद कर उठा। ऑंखों का पानी बाढ़ की तरह बह चला। मन में आया कि उठकर भाग लूँ, पर टांगें साथ छोड़ती जा रही थीं। सूरज डूब चुका था। सारे आंगन में अंधेरे छाया हुआ था। आसमान में चमकते तारे फिरकी की तरह मेरी ओर बढ़ रहे थे।
मेरी नज़र आसमान से जा टकराई। एक तारा टूटा, एक और टूटा। और फिर टूटते तारों की बरसात होने लगी। मेरा हलक सूखने लगा। मेरी चेतना श्मसानघाट में चली गई। सीमेंट के बेंचों पर चार लोग काले कपड़े पहने बैठे थे। फूलों की बेलें साँपों की भांति लटक रही थीं। मन हुआ कि एक हाथ से टूट रहे तारों को पकड़ लूँ, दूसरे हाथ से फूलों को उठा लूँ। और फिर पूछूँ कि तुम में से केसर कौन है और राम आसरा कौन ? दीप कौन सा है और ताया कौन ?
''वे हममें से कोई नहीं... उनकी मुक्ति नहीं हुई।...'' फूलों की आवाज थी कि पता नहीं तारों की। मैं शशोपंज में पड़ गया। केसर के फूल तो मैं स्वयं डाल कर आया था। फिर उसकी मुक्ति क्यों नहीं हुई ?
''क्योंकि तूने मुझे उसके कपड़े नहीं दिए...।'' किसी लड़की की आवाज थी।
यह आवाज मैंने कीरतपुर में सुनी थी। पानी में केसर के फूल प्रवाहित कर जब मैं गुरद्वारे में से बाहर सड़क पर आया, मंगतों की भीड़ मेरी ओर दौड़ पड़ी थी। उनमें एक सुन्दर सी लड़की भी थी। मेरी नज़र उससे जा मिली। उलझी आवाजों के बीच फंसी वह कपड़े मांग रही थी, ''जाने वाले के कपड़े दे जा, उसको मुक्ति मिलेगी।''
उसको कपड़े देने के लिए ज्यों ही मैंने झोले में हाथ डाला, कितनी ही बांहें मेरे पर झपट पड़ीं। एक लफंगा-सा मंगता तो झोला ही छीनकर भाग खड़ा हुआ। मैं भी उसके पीछे भागा, पर वह रोज का खिलाड़ी मुझे मात दे गया। मैं ओंधे मुँह सड़क पर गिर पड़ा। मंगतों की भीड़ हँसने लग पड़ी। मैं खाली हाथ खड़ी लड़की की ओर देखकर रोने लग पड़ा। वह भीड़ में से निकलकर सड़क किनारे जा बैठी। सड़क पर गिरा मैं उसकी ओर देख रहा था। वह मेरे कुरते-पायजामे की ओर देख रही थी।
मुझे अपना कुरता-पायजामा याद आ गया। बम्बे टेलर के यहाँ सिलना दिया था। पर लाने के लिए टाइम ही नहीं मिला। कहीं वह मेरा कफन तो नहीं सिल रहा था। मैं सूखे पत्ते की भांति कांप उठा। देह चारपाई से बिलांद भर ऊपर उठ गई। बाही पर से होता हुआ मैं धरती पर जा गिरा। शरीर मछली की भांति तड़पने लगा। यानी कोई मेरा गला घोंट रहा था। बचने के लिए मैं दीवार से जा लगा। दीवार हिलने लगी। मैं हाथ-पैर का सहारा लेकर दूर घिसटने लग पड़ा। मुँह में से आवाज निकलने लगी, ''पा....नी...।''
''हवा का काटा पानी नहीं मांगा करता, बग्गे...!'' खोखे वाले की बात मेरे सिर के इर्द-गिर्द मक्खी की तरह भिनभिनाने लगी।
वह किस हवा की बात करता था ? मेरी चेतना चक्रवात की भांति घूमने लगी। सिर के इर्द-गिर्द होती 'भिनभिनाहट में बाजा बजने लगा। मैं छोटा-सा बन गया। किसी का बड़ा-सा हाथ हवा में लहराया। पैसों की मुट्ठी विवाह वाली कार के आगे आ गिरी। मिट्टी में पाँच और दस पैसे के सिक्के बिखर गए। मैं चुगने लग पड़ा। भीड़ में हड़कंप मच गया। मेरा हाथ नाली में जा पड़ा। विवाह वाली कार मेरे ऊपर आ चढ़ी। मैं चीखने लग पड़ा।
''चीखने से कुछ नहीं होता, भाई जी...। यह इश्तहारबाजी का जमाना है।'' चाय वाले खोखे पर मिला पत्रकार मुझे यही कहकर गया था।
उस दिन मैं शहर तो गया, पर दिहाड़ी पर नहीं गया था। दिनभर खोखे के सामने बिछे बेंच पर बैठा रहा। कभी चाय का कप पी लेता, कभी बीड़ी सुलगा लेता। मन को चैन नहीं पड़ रहा था। अजीब-से खयाल आ रहे थे। मिनट भर बाद पत्रकार की कही बात याद आ जाती, ''एक इश्तहार का तीन सौ लगेगा...।''
पैसों की बात नहीं। बात कुछ और थी। मैंने महीना भर जमकर दिहाड़ी की। पैसे इकट्ठे किए। सबसे पहले अपना ही नम्बर लगवाया। जिस दिन इश्तहार छपा, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। गाँव तक साइकिल हवा से बातें करता आया। हैंडिल से टंगे अखबार में मेरी जान थी। रात में सोने से पहले कईबार इश्तहार पढ़ा। लिखा था- 'जट्ट सिख लड़का, उम्र 26, कद 5'-9'', घर की अच्छी जमीन-जायदाद, के लिए खूबसूरत कन्या की ज़रूरत है। जल्दी विवाह। कोई जाति-बंधन नहीं।'
राम आसरे का इश्तहार पढ़कर भी बड़ा मजा आया था। उसमें लिखवाया- कैनेडीयन रामगढ़िया लड़का, उम्र 24/5'-10'', अपनी फैक्ट्री, के लिए पढ़ी-लिखी सुन्दर लड़की की ज़रूरत है। तुरन्त विवाह। कोई दान-दहेज नहीं।
थोड़े से पैसे कम पड़ जाने के कारण दीप और ताया का इश्तहार मैंने साझा छपवाया। दोनों का जिक्र था- दो जट्ट सिक्ख लड़के, बड़ा फार्म और ट्राँसपोर्ट, उम्र 30/5'-7'' और 35/5'-6'' के लिए दो खूबसूरत लड़कियों की ज़रूरत है। तलाकशुदा भी सम्पर्क कर सकते हैं।
जट्ट सिक्ख कुआंरा लड़का, उम्र 38/5'-3'', सरकारी नौकरी, के लिए बहुत ही सुन्दर और सुशील कन्या की ज़रूरत है। कोई दहेज और जाति बंधन नहीं। बच्चे वाली, विधवा और तलाकशुदा भी सम्पर्क करें।... केसर का इश्तहार छपवाकर मानो मैं जिम्मेदारी से मुक्त हो गया था। मन पर से मनों भारी बोझ उतर गया। चित्त में लड्डुओं की पंसेरी ढेरी हो गई। अखबारों में से काट कर मैंने सारे इश्तहार बैठक की दीवार पर लगा लिए थे। आधी रात तक खड़े-खड़े पढ़ता रहता। माँ कलपती रहती, ''रे, ये किसका मर्सिया पढ़ता रहता है !''
''कड़वा न बोल माँ।... बस तेरा मुँह मीठा होने वाला है।'' माँ से बातें करता हुआ मैं कहीं दूर खो जाता।
शहर में खोखेवाला शौकीन बंदा था। उसके पास मोबाइल था। सभी इश्तहारों में सम्पर्क के लिए मैंने उसका नम्बर ही लिखवाया था। उसने मना किया था, पर मैंने चोरी से लिखवा दिया। जब रिश्ते वालों के फोन आने लगे तो उसे पता चला। वह मेरे से लड़ पड़ा, ''साले कुत्ते, तुझे मना किया था... अब मुझे तो मरवाएगा ही, खुद भी फंसेगा...।''
गालियाँ बकते हुए जब वह बताता कि किसी लड़की का फोन आया था, तो मैं नाचने लग पड़ता। उसकी गालियाँ तेज हो उठतीं। मैं गाने लग पड़ता, ''जिंद वेच के मिलें जे तूं....फेर वी पुगदी ऐं...।''
''देखते जाओ... तुम तो नाचते फिरोगे।''
पर एक दिन मैं मौके पर ही पकड़ा गया था।
पता नहीं, किस तरह खोज-खबर निकाल ली। एक रिश्तेवाले पूछताछ करते हुए खोखे पर आ पहुँचे थे। उन्होंने पुलिस बुला ली। मैं और खोखे वाला थाने में बैठे थे। वह तो सच बात बताकर निकल गया, पर मैं फंस गया। कई दिन मार पड़ती रही। जैसे ही फेंटा चढ़ता, गालियाँ बकता थानेदार वही सवाल पूछने लग जाता, ''क्यों बे माँ के सरबाले !... चल, बता यह चार सौ बीसी की क्यों ?...''
''नहीं जनाब, आपको धोखा हुआ है.... चार सौ बीसी तो हमारे साथ हुई है।'' पट्टों की मार सहता मैं लक्स साबुन का विज्ञापन देती एक्टरनी की चार सौ बीस बातें सुनाने लग पड़ता।
पुलिस वाले हँसने लगते। मेरी बातों से तंग आया थानेदार एक दिन बोला, ''छोड़ो इसे, यों ही फुद्दू भड़ाके मारता है साला...।''
उन्होंने मुझे पागल समझ छोड़ दिया था। लेकिन मेरा साइकिल थाने में ही रख लिया। मैं पैदल ही गाँव पहुँचा। मेरे साथ चले आ रहे चार साये गाँव की बाहरी सड़क पर से श्मसानघाट की तरफ मुड़ गए। गुरद्वारे वाला पाठी 'रहिरास' का पाठ कर रहा था। हमारी बैठक में से रोने की आवाजें आ रही थीं। माँ मरी पड़ी थी। मेरी आह निकल गई, ''यह कैसे मरी...?''
''तेरा इंतजार करती मर गई।'' जिन्हें कोई दुख नहीं था, उनके शब्द मेरे कानों में पड़ रहे थे।
माँ के सिरहाने बैठा मैं दीवार पर चिपके इश्तहारों की ओर देख रहा था।
पर कुछ भी साफ नज़र नहीं आ रहा था। मेरी ऑंखों में मिट्टी पड़ गई थी। खून में जलन हो रही थी। मुझे प्यास लगी थी, पर नलका दूर था। मैंने किसी को पुकारा। नहीं, किसी ने मुझे पुकारा था। नहीं, शायद नलका खड़का था। मैंने धीरे-धीरे ऑंखें खोलीं। एक चूड़े वाली बांह दिखाई दी। मेरा मुँह खुल गया। हाथ में गिलास थामे वह मेरे मुँह में पानी डालने लगी। मुझे खांसी छिड़ गई। सांस उखड़ गई। मैंने दोनों हाथों से गले की घंटी पकड़ ली।
''ला, मेरी बांह पर सिर रख ले।... तकलीफ कम होगी....।'' मेरे सिरहाने बैठी औरत जोर-जोर से हँसने लग पड़ी।
उसकी बांह पर रखने के लिए जैसे ही मैंने अपना सिर उठाया, वह गायब हो गई। मेरा सिर धड़ाम से धरती से जा बजा। मेरी चीख निकल गई।
''चुप कर बग्गे ! चल अब, राह बहुत लम्बी है....।'' चार साये मेरे पैरों की तरफ खड़े थे।
मैं उनकी तरफ देखने लग पड़ा। वे आसमान में उन तारों की ओर देख रहे थे, जिन्हें सारा गाँव 'छड़ों का राह' कहा करता था।
''नहीं...।'' अपनी जानिब मैंने उनकी ओर से पीठ कर ली।
मेरी ऑंखें बन्द होने लग पड़ीं। कुछ ऊपर की ओर उठने लग पड़ा। मैं बहुत हल्का हो गया। दिमाग में फूलों की क्यारी खिल उठी। मैं उसमें एक फूल बनकर खिल उठा।
''मुझे तो यही फूल लेना है....।'' एक लड़की की आवाज मेरे कानों के बहुत करीब से होकर गुजर गई। लड़के ने मुझे तोड़कर उसके हाथों में पकड़ा दियाय। वह सूंघने लगी। मैं बहुत भीतर तक महक उठा। महक छोड़ती लड़की रात की रानी बन गई। मैं आसमान का तारा बन गया । वह मेरी ओर इशारे करने लगी, ''मुझे वो तारा तोड़कर ला दे...।''
मेरी ओर देखता लड़का, लड़की से वायदा करने लगा।
मैं अपनी शांत हो रही चेतना को बाहर की ओर मोड़ने लग पड़ा।
शायद, कोई बाहर वाला दरवाजा खड़का रहा था।
00


जसवीर सिंह राणा
जन्म : 18 सितम्बर 1968, अमरगढ़, ज़िला-संगरूर(पंजाब)
शिक्षा : एम.ए.(पंजाबी), बी.एड.
प्रकाशित पुस्तकें : शिखर दुपहिरा(कहानी संग्रह-2003),खित्तियाँ घुम्म रहियां ने(कहानी संग्रह-2008), मैं ते मेरी खामोशी(शब्द चित्र-2012)
मान-सम्मान :-
कहानी संग्रह 'शिखर दुपहिरा' पर भाषा विभाग पंजाब का 'नानक सिंह पुरस्कार, 2004' 'चूड़े वाली बांह' कहानी को सर्वोत्तम कहानी के तौर पर 'बीबी स्वर्ण कौर यादगारी पुरस्कार, 2007', 'पट ते वाही मोरनी' कहानी को सर्वोत्तम कहानी के तौर पर 'बीबी स्वर्ण कौर यादगारी पुरस्कार, 2009','चादर' कहानी को सर्वोत्तम कहानी के तौर पर 'करनल नरैण सिंह भट्टल यादगारी पुरस्कार,2001'

सम्प्रति :अध्यापन।
सम्पर्क :स्वर्ण विला, गाँव व डाकखाना-अगरगढ़, ज़िला-संगरूर (पंजाब)
फोन :098156-59220
ई मेल :jasvir_rana@yahoo.com

Read more...

आत्मकथा/स्व-जीवनी




पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल :
prem_lakeer@yahoo.com


आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

बढ़इयों का मुहल्ला
मैंने अभी स्कूल जाना प्रारंभ नहीं किया था कि मेरे दादा जी ने दो मुहल्ले छोड़कर बढ़इयों के मुहल्ले में खोला लेकर नया मकान छत लिया। इस काम में सारी लक्कड़ हमारी ज़मीनों से आई थी और काम मुज़ारों (खेतिहरों) या असामियों ने किया था। नक्शा मेरे दादा लाला नौराता राम का था और सलाह मिस्त्री सरधा राम की थी। दोनों हुक्का पीते हुए बातें किया करते। इस पर लोगों ने एक कहावत ही बना ली थी - ''क्यों भाई सरधा राम ?'', ''हाँ भाई नुराता राम।''
हमारे अधिकांश मुज़ारे मुसलमान जट्ट होते और असामियाँ भी अधिकतर मुसलमान थीं। मेरे दादा जी कहा करते थे कि सिक्ख जट्ट से मुसलमान जट्ट अधिक वचन का पालन करता है। फ़सल की चोरी कम करता है। पर सच्चाई यह थी कि मुसलमान जट्ट बिना रुलाये चमड़ी उतरवा लेता था।
जब से होश संभाला, मैंने देखा कि मेरे दादा जी कोई काम नहीं करते थे। अपनी सेहत और चुस्ती कायम रखने के लिए वह डंगरों का बाँधना-खोलना कर लेते और कभी कभार जब दमे से उनकी सेहत ठीक होती तो बदीनपुर, गलबड्ढ़ी और बडगुज्जरां जाकर ज़मीनों पर फेरा लगा आते। असल में, उन्होंने मेरे बाई जी(पिता) को 'मुख्तार-ए-आम' बना रखा था अर्थात सारे काम करने के अधिकार उन्हें दे रखे थे। पर वह उन्हें बेअक्ल और पैसे लुटाने वाला समझते थे। जैसा कि मेरे पिता मुझे मूर्ख और उल्टी खोपड़ी वाला समझते रहे।... बात यह थी कि मेरे पिता ग़रीबों के साथ हमदर्दी करते थे और फ़सल की बंटाई लेने या सूद की उगाही के समय नरम पड़ जाते थे। जब मैं जवान हुआ तो मैं उन्हें बुरा और मूर्ख इसलिए लगने लग पड़ा कि मैं दसवीं पास करने से पहले ही नास्तिक हो गया था। परमात्मा और धर्मों के विरुद्ध बोलता था। धार्मिक रीतियाँ और रस्में मार खाकर भी नहीं पालता था।
जब मुझे पुन: स्कूल में डालने के यत्न किए गए तो मैं मार खाकर बहुत ढीठ हो गया था। जब कभी मेरे पिता मुझे कहीं छिपे हुए को पकड़ लेते तो थक हार कर हँस पड़ते और मुझे पकड़ कर सरधा राम मिस्त्री के कारख़ाने में बिठा कर कहते, ''लो मिस्त्री जी, इसने पढ़ना नहीं, इसे अब गुल्लियाँ घड़ना सिखा दो।'' बाबा मुझे एक गुल्ली और रंदा पकड़ा देता और मंद-मंद मुस्कराते हुए हुक्का पीते अपना काम किए जाता। जब पिता चले जाते तो वह मुझे धीमे से कहता, ''ले, गया तेरा बाप। भाग जा, पीर भोले के पीछे चला जा।''
मेरे पिता अक्सर पेशियाँ भुगतने अमलोह और नाभा साइकिल पर जाते रहते थे। राह में भादसों मेरी बुआ राम प्यारी थी। उसके पास विश्राम करते थे। उस बुआ को मेरे से बहुत प्यार था। मेरे फूफा जी वहाँ पोस्ट मास्टर थे। उनके बड़े बेटे जोग ध्यान (जिसका नाम बदल कर रामेश्वर दास पुरी रख दिया गया था) से मेरा प्यार पड़ गया था। मैं उससे एक कक्षा आगे था। हम दस बरस एक साथ एक ही बिस्तर पर सोते रहे थे।
एक बार जब बुआ ने मुझे पढ़ने के डर से रोता हुआ देखा तो वह मुझे अपने संग भादसों ले गई। जहाँ मुझे पढ़ाई में रुचि जाग्रत हुई और मैंने वहीं चार कक्षाएँ पास कीं।

भादसों में चार बरस
सरकारी प्राइमरी स्कूल, भादसों के अध्यापक मुझे पहले तो बुच्चड़ ही लगे जिनके हाथों में डंडे, दिमाग में इल्म की गरमी और आँखों में क़हर होता था, पर बाद में वे अच्छे हो गए। परन्तु वहाँ के अध्यापक और अन्य सरकारी अधिकारी मेरे फूफा जी बाबू मोहन लाल की इज्ज़त करते थे और हमारा लिहाज़। एक अध्यापक श्री गोरा लाल समीप के गाँव तंदे बद्धे के थे। वे हमारे दूर के रिश्तेदार भी थे। मैं उनके घर के काम करके खुश होता था। मुझे वे भी प्यारे लगते थे। उनकी पत्नी भी और उनका बच्चा भी। उनका विवाह हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। लेकिन, स्कूल में ऐसे अध्यापक भी थे जो ज़रा-ज़रा-सी बात पर डंडे मारते, कान पकड़वाते और पीठ पर ईंटे रखवा कर पुट्ठों पर ठोकर मारा करते थे। पर बड़ी बात यह कि भादसों के स्कूल में कोई टीका लगाने वाला नहीं आता था।
स्कूल में पढ़ाने का माध्यम उर्दू थी और नाभा रियासत का भूगोल पढ़ाया जाता था। खन्ना में यद्यपि मैं स्कूल में जाने नहीं लगा था, पर कट्टर आर्य समाजी मेरे पिता जी और माता जी ने थोड़ी-बहुत देवनागरी लिखना सिखा दी थी। भादसों में भी मेरे पिता ने मुझे हिंदी पढ़ाने का प्रबंध कर दिया था। वहाँ के कच्चे किले के पिछवाड़े उजड़े टीलों से परे एक काफ़ी बड़ा मंदिर था। जिसके मालिक उदासी सम्प्रदाय के सन्यासी स्वामी जी थे। वह पाँवों में खड़ाऊँ, कमर में भगवा अंगोछा पहनते थे और शेष बदन नंगा रखते थे। कड़वे स्वभाव के स्वामी जी अपनी डाक लेने डाकखाने आते तो मेरे पिता से अक्सर धार्मिक बहस छेड़ बैठते। सोच दोनों की हालांकि भिन्न हो, पर वे घूमती हिंदुओं के कल्याण के इर्दगिर्द ही थी। पिता ने मुझे उनके सुपुर्द कर दिया। मैं और भाई जोग धियान उनके डेरे पर जाते। तोतों द्वारा टूंगी हुई इमली की फलियाँ उठाकर खाते और फिर कुएँ में से डोल द्वारा पानी भरकर सारी मूर्तियों को नहलाने में स्वामी जी की सहायता करते और फूल-बूटों को पानी देकर हाँफने लग पड़ते। फिर, स्वामी जी हमारे हाथ-पैर धुलाकर पास बिठाकर वे मूर्तियाँ दिखलाते जो हर किसी को दिखाई नहीं जाती थीं। वे गाँव के लोगों को मंदिर में माथा भी टेकने नहीं देते थे।
वह मिट्टी पर लिखकर देवनागरी सिखलाते और फिर रामायण और महाभारत की छोटी-छोटी कथाएँ सुनाते। मैं इस काम में तेज़ निकला। मैंने देवनागरी भी सीख ली और मुझे पुराणों की सुनाई गई हरेक कहानी ज़बानी याद हो जाती थी। उन कहानियों के पात्र मेरे सपनों में भी आने लग पड़े थे। उन पात्रों के धुंधले नक्श पहले भी मेरे मन में थे। मैंने वे कहानियाँ अपनी माँ से भी सुनी थीं।
भादसों कस्बा तीन हिस्सों में बँटा था। एक हिस्सा, नाभा वाली सड़क की ओर जट्टों की पत्ती था, जिसका नाम राम गढ़ लिखा जाता था। बीच में टीले पर ब्राह्मणों, बनियों, साधुओं और कहीं-कहीं काम-धंधा करने वालों के घर थे जिनमें कुछ दर्जियों और पंडितों ने भी केश रखे हुए थे। पश्चिम दिशा की ओर वाले हिस्से में मुसलमान गूजर और अन्य मुसलमान जातियों के लोग रहते थे। स्कूल के बाद हमारे खेलने का केन्द्र बीच वाली पत्ती थी या गूजरों की पत्ती। वे खेती करते, तांगे चलाते और भेड़-बकरियाँ पालते थे। ये जानवर ही थे जो मुझे आकर्षित करते थे। मैं उनके आस पास घूमता रोटी खाना भी भूल जाता था। शाम होती तो धूल वाले बहुत चौड़े रास्ते में कोई व्यक्ति अपना नया घोड़ा साध रहा होता। उसके पीछे एक घसीटा-सा घिसटता रहता। कभी घोड़ा गर्दन ऊपर उठाकर कहना न मानता तो संटी की मार खाता। मैं तब तक खड़ा रहता, जब तक यह काम चलता रहता। फिर जब बकरियों के गले में बंधी घंटियाँ बजतीं, धूल उड़ती, बाड़ों में मेमने शोर मचाते तो मैं दौड़कर बाबा गौंस मुहम्मद उर्फ़ गौंसू के बाड़े में जा घुसता। उनके साथ हमारे फूफा जी की बहुत सांझ थी। वे हमें अपने जानवरों के साथ खेलता देखकर खुश होता। अपनी मेंहदी रंगी दाढ़ी से इतनी ज़ोर से हँसता कि उसकी गूंज दूर तक सुनाई दिया करती थी।
बाबा गौंस मुहम्मद कभी कभी हमें पुचकार कर घर भेज देता था। पर हमें पता लग जाता था कि अब बाड़े में जानवरों (बकरियों, भेड़ों और घोड़ों) का वह खेल होने वाला है जिसे देखने की हमें मनाही थी। पर वही खेल हम बाहर खुले मैदानों और उजाड़ से बरोटे के नीचे बंधे अथवा टीले पर बैठे जानवरों के झुंड में देख लेते थे। गूजर बड़े सुन्दर नर घोड़े पालते थे। वे जब बाहर से आई घोड़ियों के लिए घोड़ों को बाहर निकालते तो हमें भगा देते। लेकिन हम जानवरों के पैदा होने से लेकर मरने तक उनकी सारी क्रियाओं से परिचित हो गए थे। जानवरों की इन क्रियाओं से हमने बहुत कुछ सीखा। फिर भी, यह गुप्त बातें मेरे लिए रहस्य का संसार बनी रहीं।
भादसों के साथ बरसाती नाला बहता था जिसकी गहराई से हम डरते थे। उसे पक्के पुल से पार करने पर जंगल शुरू हो जाता था जो चहिल से लेकर रोहटी तक जाता था। ग़रीबों के बच्चे वहाँ लकड़ियाँ चुनने जाया करते और हम उनके संग 'घोड़ा-घोड़ा' खेलते रहते। झाड़ियों के बेर, इमली, सरींह की फलियाँ और जंगली बिल तोड़ने चले जाते। जंगल में भेड़ियों, गीदड़ों, नीलगायों और राम गऊओं का हर समय भय सताता रहता। फिर भी, हम पता नहीं किस हौसले के साथ जंगल के अन्दर मील भर जा घुसते। प्यास लगती तो छोटे छोटे पोखरों का पानी ढाक के पत्तों के डोने बनाकर पी लेते। कोई खतरनाक जानवर आता तो दरख्तों पर चढ़ जाते। मैं अब हैरान होता कि प्राइमरी की कक्षाओं के बच्चे जानवरों के ख़तरे के बावजूद जंगल में जाने से रुकते क्यों नहीं थे ? हालांकि जब भी जाते घरवालों की डांट-फटकार सुननी पड़ती। जंगली जानवरों का हौसला तो इतना था कि जब घरों के दीये बुझ जाते तो गीदड़ भी कुत्तों से निडर होकर हमारे घरों की दीवारों से लगकर ‘हुआं-हुआं’ करते थे।
उन दिनों में ही नहीं, अब तक मेरे दिल में जानवरों और पशुओं, ख़ासतौर पर कुत्तों के लिए बड़ा प्रेम रहा है। कुत्ता रखने की इच्छा सारी उम्र तंग करती रही है। यह इच्छा क्यों थी ? मुझे पता नही चलता। भादसों में दो-तीन बार रखा तो फूफा जी ने कोई न कोई बहाना बनाकर घर से भगा दिया। फिर, खन्ना में गली के कुत्ते पालता रहा। जालंधर भी कई कुत्ते रखे, पर इस बात से पत्नी दुखी रही।
भादसों कई टीलों पर बसा हुआ था। टीलों के नीचे से पिछली आबादी के चिह्नों के तौर पर बर्तन, कोयला, कौड़ियाँ, सीपियाँ और मन्सूरी पैसे-धेले खोजा करते थे। मुझे धरती खोदने पर यदि शंख भी मिल जाता तो मैं उसको छिपा कर घर में रख लेता। मैं जंगल में से बेलों के नीचे से वीर-बहूटियाँ भी चुग लाता था। जब कभी मेरी बुआ देख लेती तो वह बहुत-सी चीज़ें बाहर फेंक देती। वह वीर-बहूटियों को काले मुँह वाली कहा करती थी। बारिश होने पर टीलों के इधर-उधर पड़ती पानी की धाराएँ मुझे अच्छी लगतीं। उनमें से निकल कर बाहर आती वस्तुएँ और बरसाती पानी से भरकर बहता चौ मुझे अच्छा लगता। मिट्टी का बना वह किला अच्छा लगता जिसकी चौड़ी दीवारें भुरभुराती रहती थीं। मुझे उन स्थानों के स्वप्न अब भी आते हैं। मेरी कई कहानियों का सृजन इन्हीं सपनों में हुआ है।

आर्य हाई स्कूल
भादसों में चार कक्षाएँ पास करके मैं खन्ना आकर आर्य स्कूल में पाँचवी कक्षा में दाख़िल हो गया। वह स्कूल मेरी कल्पना से कहीं बड़ा था। साथ के विद्यार्थी, अध्यापक सभी अनजान थे। प्रिंसीपल नंद लाल का खा जाने वाले शेर जैसा भय था। उसको देखकर ही दिल धक धक करने लगता था। जो मास्टर जानते थे, वे मुझे अपने दुश्मन लगते थे। अब भी दुश्मन ही लगते हैं। मुझे गुरु-शिष्य वाली भारतीय परम्परा कभी भी अच्छी नहीं लगी। मुझे यह मनुष्य के स्वतंत्र विकास में बाधा डालने वाली लगती है।
मैं खन्ना का रहने वाला था, पर जब मेरे शहरी सहपाठी फिल्मों और नाटकों की बातें करते तो मुझे लगता था कि किसी पिछड़े इलाके में से आया हूँ। भादसों के चार वर्षों ने मुझे दूसरे लड़कों के सामने उज़बक-सा बना दिया था। मुझे उनके सामने बात ही नहीं सूझती थी। जब किसी की बात मुझे कड़वी लगती थी, मैं उसको पकड़कर ढाह लेता था, पर कूटने से डरता था। वे प्रिंसीपल नंद लाल के पास चले जाते थे। कुछ दिनों बाद ही मेरी शिकायत प्रिंसीपल के पास हो गई थी। जब चपरासी बुलाने आया तो मुझे इतना डर लगा था कि मैं ठीक से चल नहीं पा रहा था। जब मैं प्रिंसीपल के कमरे में गया तो उन्होंने देखते ही पूछा, ''तू वेद प्रकाश का भाई है, राम प्रसाद का लड़का है ?''
वह मुझे जानते हैं, यह सोचकर मेरा डर कुछ कम हो गया। मेरे पिताजी और बड़ा भाई दोनों उनसे पढ़े हुए थे। फिर, उन्होंने पूछा, ''तूने इसे क्यों मारा ?'' मैंने कहा, ''इसने मुझे हिड़कें मारी थीं।'' वह मेरी बात नहीं समझ पाए। भादसों में बेरों की गुठलियों या गिटकों को 'हिड़कां' कहते थे। प्रिंसीपल लाहौर से पढ़कर आए थे। उन्होंने मुझे वार्निंग देकर छोड़ दिया। पर मेरे अन्दर एक भय-सा बैठ गया। स्कूल मुझे थाना लगता था। मैं स्कूल के अन्दर किसी से नहीं लड़ता था। गुस्सा अन्दर ही अन्दर पी जाता था।
भादसों से आकर मैंने अपने घर का जो माहौल देखा, वह मुझे तंग करने वाला था। दादी और माँ का बहुत प्यार मिलता था, पर पिता से दहशत होती थी। शायद ही कभी मैंने उनके और उन्होंने मेरे जिस्म को छुआ हो। एक बार मैं बीमार होने के कारण उनकी पीठ पर चढ़ा था और कुछ बार माँ के कहने पर मैंने बीमारी में उनकी टांगे या सिर दबाया था। मुझे उनके सिर को हाथ लगाते हुए भी डर लगता था।
उन्होंने मुझे सिर्फ़ एकबार जफ्फी में लिया था, जब मैं दसवीं पास करके टेलीग्राफी की ट्रेनिंग लेने मुरादाबाद गया था। वहाँ मेरा दिल नहीं लगा था और मैं रोता रोता वापस लौट आया था। कस्बे में रहने वाले अपरिपक्व लोगों की तरह मैं परदेश में रह नहीं सका था। जब मैं घर आया था तो पिता जी ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया था। पर उन्होंने कभी मुझे अपनी उंगली पकड़ाकर अपने साथ नहीं चलाया था।
घर में मेरा चाचा ओम प्रकाश उर्फ़ 'चिब्हड़' मेरे से चार बरस बड़ा था। पढ़ाई में पिछड़ने के कारण वह मुझसे पढ़ा करता था। एक बड़ा भाई था- वेद प्रकाश, जिसके कारण मैं सारी उम्र परेशान रहा हूँ। उसके साथ मेरी लड़ाई एकतरफा थी। वह मुझे जब चाहे पीट लेता था। चीज़ें छीन लेता था। खेलों में रौंद मारता था। मैं खूब दुहाई देता था। सभी उसको समझाते और थोड़ा-सा झिड़कते भी थे। पर जो इस बेइंसाफी को देखकर मुझे बचाते नहीं थे, मेरे मन में उनके लिए नफ़रत पलने लगी थी। सबसे अधिक नफ़रत अपने पिता से थी। जिसकी दहशत और पिटाई सिर्फ़ मेरे लिए थी। हो सकता है कि उनके दिल में भी मेरे लिए नफ़रत हो या लगाव ही न हो। कोई भी पिता अपने सभी बच्चों को एक-सा प्यार नहीं करता। अब मैं स्वयं बाप से भी आगे दादा और नाना हो गया हूँ। मेरे मन में भी सारे बच्चों के लिए एक-सा प्यार नहीं है। ईसाई भाई जब यसू मसीह या परमात्मा को 'पिता' कहते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं सोचता हूँ कि परमेश्वर पक्षपात नहीं करता होगा। बाप सारी उम्र करता है।
(जारी)

Read more...

पंजाबी उपन्यास


बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की चौथी किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

4
अँधेरा गहरा हो गया था और गुलाब इतना थक चुका था कि उसमें उठने की हिम्मत नहीं थी। वह कुएँ की गाधी पर ही सो गया और मुंदती आँखों से उसकी चेतना की सुई पुन: कई बरस पीछे की ओर मुड़ गई।
हमारा गाँव ढाबां सिंह स्टेशन से ननकाणा साहिब को जाने वाली कच्ची सड़क पर दो कोस की दूरी पर था। उससे आगे मजौरां वाला, कड़कन, मानांवाला और कई अन्य छोटे-छोटे गाँव थे। ननकाणा साहिब हमसे कोई सोलह मील दूर था। बाबा नानक के गुरपर्व के समय हम बैलगाड़ियों में पूर्णमासी नहाने ननकाणा साहिब जाया करते थे। बैलगाड़ियों का काफ़िला अपना-अपना रसद-पानी लेकर चल पड़ता। कार्तिक मास की पूर्णमासी को रात के समय रजाइयों वाली ठंड भी हो जाती और बाहर निकलने पर दाँत किटकिटाने लग पड़ते थे।
कई शौकीन ढाबां सिंह स्टेशन से रेलगाड़ी पकड़ कर शेखूपुरे पहुँच जाते और वहाँ से रेल बदल कर ननकाणा साहिब पहुँचते। लेकिन जो आनन्द बैलगाड़ियों पर जाने का था, वह रेलगाड़ी पर जाने का नहीं था। एक बार मैं बापू के साथ रेलगाड़ी पर गया था, पर कोई मज़ा नहीं आया था। बापू ने निहंगों वाले चोले पहनकर माँ से कहा था कि वह गुरपर्व पर बिना टिकट ही जाएगा। बापू ने पीले रंग का लम्बा चोगा, पट्टेदार कच्छा और नीली दस्तार(पगड़ी) सजाकर उस पर चक्र लगा लिया और मुझे संग ले लिया। मैंने भी अपना कुर्ता पीले रंग में रंगवा लिया मानो मैं दसवें पातशाह की तरह अपने बापू के साथ पाँचवा साहिबजादा बनकर जा रहा था।
हम बेटिकट ही रेलगाड़ी में चढ़ गए। सच्चा सौदा स्टेशन पार करके चूहड़खाने स्टेशन पर पहुँचे थे कि टी.टी. ने आ कर टिकट पूछा।
टी.टी. टिकट पूछता और बापू निहंगों वाले मस्तीभरे लहजे में बड़ी बेपरवाही से कहता, ''ओए तू ले जा अपनी भूतनी, हम अपने तेजा सिंह पर चढ़कर चले जाएँगे।''
बढ़ते-बढ़ते झगड़ा बढ़ गया। जब शेखूपुरे का स्टेशन आया तो टी.टी. हमें घेर कर बड़े टी.टी. के पास ले गया। वहाँ पहले ही कितने सारे बेटिकट निहंगों को घेरा हुआ था।
बापू के पहुँचने की देर थी कि उन्होंने गरज कर 'बोले सो निहाल' का जैकारा लगाया और निहंगों ने 'सतिश्री अकाल...' की गूंज से स्टेशन मास्टर का कमरा गुंजायमान कर दिया। एक सिंह जैकारा बुलाकर हटता तो दूसरा शुरू कर देता। करीब पन्द्रह मिनट तक जब ये जैकारे बन्द न हुए तो टी.टी. ने हाथ जोड़कर कहा, ''जाओ भाई, जाओ, हमारा पीछा छोड़ो।''
हम लौटकर ननकाणा साहिब वाली रेलगाड़ी पकड़ने के लिए आए तो डिब्बों में तो क्या, बाहर लटकने लायक भी जगह नहीं थी। एक सिंह ने सलाह दी कि सब गाड़ी की छत पर चढ़ जाएँ। बड़ी मुश्किल से रेलगाड़ी चली और जब तक ननकाणा साहिब नहीं आया, निहंग सिंह जैकारे लगाते रहे और ननकाणा पहुँच कर बापू और मैं भी दूसरे निहंगों के साथ एक निहंगों के डेरे में चले गए।
जब लंगर छकने का वक्त आया तो एक सेवादार बोला, ''मीठे परशादे लो भई, मीठे परशादे।''
मैंने मीठे परशादे के लालच में झट मीठा परशादा ले लिया, पर पता तब चला जब कई दिनों के बासी परशादे थमा कर सेवादार लौटकर दाल भी देने नहीं आया और मैंने भूखे मरते ने मीठा परशादा ही थोड़ा-थोड़ा करके चबा लिया।
भविष्य में, रेलगाड़ी पर न जाने की मैंने कसम डाल दी। बैलगाड़ियों के काफ़िले में जाने का आनन्द अलग ही था।
पंजीरी की पीपी भर ली जाती। दूध में आटा गूंधकर मीठी, खस्ता-नरम रोटियाँ माँ पका लेती जो कई दिनों तक नरम ही रहतीं। और ये मीठी रोटियाँ ननकाणा साहिब पहुँचकर खाने में बड़ा स्वाद आता। रास्ते भर बैलगाड़ियों में जाने वाले लोग प्रसन्न से होकर 'शबद' बोलते जाते और जब हमारी बैलगाड़ियाँ मुसलमानों के गाँवों के करीब से गुज़रती तो मुसलमान बड़े चाव से हमें जाते हुए देखते।
इन बैलगाड़ियों पर जाने का एक आनन्द यह भी था कि बापू की एक धर्म-बहन भागो जो पशौर के एक अमीर हलवाई सुन्दर सिंह के साथ ब्याही हुई थी, हर साल पति के साथ धार्मिक स्थानों की यात्रा के लिए आया करती थी। उसका विवाह सुन्दर सिंह हलवाई से बापू ने ही करवाया था। सुन्दर सिंह जाति का अरोड़ा था और आयु में अधिक था। काणा होने के कारण अमीर होने के बावजूद वह काफ़ी समय तक रंडा ही रहा था। कई लोगों का ख़याल था कि भागो बापू की धर्म-बहन नहीं थी। अपितु बापू ने कहीं माँ से छिपाकर उसके साथ अकाल-तख्त, अमृतसर में फेरे भी लिए थे और बाद में बापू ने सुन्दर सिंह हलवाई से उसका विवाह करवा दिया था या बेच दिया था। पर यह बात मुझे बहुत बुरी लगती थी।
बापू देश को आज़ाद करवाने की खातिर कई बरस जेल में भी रहा था और सुना था कि भागो भी देश की आज़ादी की खातिर कई बार कैद हुई थी और वह जाति की मुसलमान खोजिन थी और उसने बापू के पीछे सिक्ख-धर्म धारण कर लिया था। मेरे लिए यह सब एक गोरख-धंधा था और मुझे इसके भीतर का सच कुछ भी समझ में नहीं आता था।
यदि वह मेरे पिता की धर्म-बहन बनी थी और दोनों ने देश की आज़ादी की खातिर जेलें काटी थीं तो फिर उन्होंने माँ से चोरी अकाल तख्त में फेरे करवाने की क्या ज़रूरत थी। और यदि फेरे करवा ही लिए थे तो बापू द्वारा उसको सुन्दर सिंह हलवाई को बेचने की बात मेरी समझ से बाहर ही रही।
जो कुछ भी था, भागो को माँ अच्छा नहीं समझती थी। जब वह पशौर से आती, महीना महीना हमारे घर में रहती। उसके संग उसका नौकर भी आता। वह अखरोट, बादाम, मेवे, किशमिश, काजू और कई-कई किस्म के दूसरे फलों के अलावा मिठाइयों की टोकरियाँ भर भर कर लाती। मुझे इतना मालूम है कि माँ इन चीज़ों को हाथ तक न लगाती। कई बार बापू और भागो तांगे पर बैठकर मंडी सैर करने जाते। कभी-कभी वे मुझे भी संग ले जाते। भागो की मेरी उम्र की दो खूबसूरत बेटियाँ भी थीं।
मुझे भागो बड़ा प्यार करती। चूमती, अपनी गोदी में लेकर मुझे मेवे आदि खाने के लिए देती। मैं उसकी गोरी-चिट्टी लड़कियों के संग खेलते न थकता और हर साल उनके आने की प्रतीक्षा किया करता।
भागो एक महीना पहले आ जाती और सुन्दर हलवाई गुरपर्व के बिल्कुल करीब आता और हम सब बैलगाड़ी भरकर ननकाणा साहिब पहुँचते। वहाँ पहुँचकर सरायों की भीड़ से बचने के लिए सुन्दर सिंह शहर में कोई बैठक या चौबारा किराये पर ले लेता। एकबार सुन्दर सिंह भागो को लेकर सीधे ही ननकाणा साहिब पहुँच गया और बापू को वहाँ पहुँचने के लिए ख़त डाल दिया। हम भी पहुँच गए। मेले में बहुत भीड़ थी। बापू ने मुझे कंधे पर उठा रखा था। हम वो जगह देखकर लौट रहे थे, जहाँ साँप ने बाबा नानक के मुख पर छाया की थी। रास्ते में मैं सतौली शाह के चूहे देखने और गुब्बारा लेने के लिए बापू के कंधे से उतर गया। गुब्बारा लेने गया मैं गुम हो गया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। कुछ सेवादार मुझे उठाकर गुम हुए बच्चों वाले तम्बू में ले गए। वहाँ मुझसे छोटे-बड़े अनेक गुम हुए बच्चे ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे। जब खोजते-खोजते उनके माता-पिता उनके पास पहुँच जाते, तो वे उनसे लिपट कर और अधिक ऊँची आवाज़ में रोने लग पड़ते। माता-पिता के मिलने की मुझे भी कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती थी और हम ठहरे कहाँ पर हैं, इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी।
करीब एक घंटे के पश्चात् बापू, माँ, सुन्दर सिंह, भागो और उसकी दोनों बेटियाँ मुझे खोजते-खोजते वहाँ आ पहुँचे। भागो ने मुझे माँ की गोद से छीन कर पता नहीं कितनी बार चूमा-चाटा। और मैंने देखा कि भागो बहुत सुन्दर थी। मेरी माँ से भी सुन्दर!
माँ भी कोई बदसूरत औरत नहीं थी। कद बेशक उसका छोटा था, पर रंग बड़ा गोरा और आँखें नीली थी। नीली आँखों वाली औरतें हिंदुस्तान में कम ही हुआ करती हैं और मैं अपनी माँ का अकेला लाड़ला पुत्र था।
भागो का अपना कोई बेटा नहीं था, परन्तु वह सुन्दर बहुत थी। मुझे उसने अपना बेटा बना रखा था और मुझे इसमें कोई अधिक एतराज़ भी नहीं था।
गाँव में लोग बातें किया करते थे कि भागो जाति की खोजन थी और खोजे मुसलमानों में सबसे सुन्दर जाति मानी जाती है। परन्तु, इस खोजन का बापू से रिश्ता कैसे जुड़ा था, इसका मुझे कभी पता न चल सका।
फिर पशौर से चिट्ठी आई कि भागो अपनी बेटियों और सामान सहित हमारे पास आ रही थी। पशौर मुसलमानी इलाका था और उधर खून-खराबे की वारदातें शुरू हो गई थीं।
बापू बैलगाड़ी लेकर स्टेशन पर गया और भागो को गाँव ले आया।
फिर क्या हुआ - परिवारों के परिवार रावलपिंडी, पशौर, लंडी कोतल, पंजा साहिब, जेहलम और गुजरात से इधर आने लग पड़े और सारी मंडी बेघरों से भर गई।
कई बार मंडी में से ये गोरे-चिट्टे पशौरिये भापे सलवारें पहने लस्सी लेने हमारे गाँवों में आ जाते और गाँव वाले लस्सी के साथ-साथ इन्हें रोटी भी पका कर लिखा देते।
भागो की इस आमद में और पहले की आमद में बड़ा फ़र्क था। पहले भागो मेहमान बनकर कुछ न कुछ लेकर आती थी। इस बार भागो बोझ बनकर, बेघर और बेआसरा होकर पनाह लेने आई थी। इस बार न उसमें पहले जैसी चमक थी, और न ही मटक।
एक दिन मिलेट्री से भरी गाड़ी आई और स्टेशन पर खड़ी हो गई। मिलेट्री ने मंडी पर फायरिंग करनी शुरू कर दी। कई आदमी मारे गए, कई ज़ख्मी हो गए। रातोंरात सारी मंडी खाली हो गई। जिन बाज़ारों में दिनभर रौनक रहती थी, वहाँ सन्नाटा पसर गया। आधे से ज्यादा लोग मंडी छोड़कर हमारे गाँव में आ घुसे। स्कूल में छुट्टियाँ थीं, वहीं खाली कमरों में उनका प्रबंध कर दिया गया। कुछ लोग गुरद्वारे चले गए। कुछ परिचितों के घरों में समा गए। हमारी एक बैठक खाली थी, वह भी भर गई। दूसरी में भागो का डेरा था। मास्टर कहीं से बैटरी वाला रेडियो ले आया था। आसपास के तीन गाँवों के लोग रेडियो सुनने आते। इस रेडियो पर रोज़ छुरेबाज़ी और आगजनी की खबरें आती थीं। फिर मुझे पता चला कि गाँव के नौजवान लड़के रातों में इकट्ठा होकर कुछ खुफ़िया बातें करते थे।
हमारे गाँव के साथ-साथ कई मुसलमानों के गाँव थे। जैसे गोंदरा वाला, मजौरां वाला आदि। इन गाँव में पूरी की पूरी आबादी मुसलमान जांगलियों की थी। कोलरां वाला जो बिल्कुल रेलवे लाइन पर ढाबां सिंह और मोमन स्टेशन के बीच था, सारा ही मुसलमानी गाँव था। एक दिन एक गाड़ी घंटा भर कोलरां वाले गाँव के नज़दीक खड़ी रही और हथियार गाँव में पहुँचते रहे। इन हथियारों में बन्दूकें, पिस्तौलें, छुरे, बरछे और तलवारों के अलावा छोटे बंब भी थे। इस घटना से सिक्खों के गाँवों में खलबली मच गई। लोगों के रंग जो मंडी में गोली चलने से फक्क हुए पड़े थे, और ज्यादा फीके पड़ गए।
एक दिन छींबों के प्रीतू ने बताया कि उस रात के बजे के आसपास कुछ लोग तेलियों के घर जाते और फिर वहाँ से निकलते देखे थे।
सवेरे पड़ताल की गई तो तेली साफ़ मुकर गए। अपितु कहने लगे कि हमें तो सिक्खों से डर लगता है और हम गाँव छोड़कर साथ वाले गाँव मजौरां वाले जा रहे हैं। गाँव इस बात को अपनी हेठी समझता था और अन्दर ही अन्दर लुहारों और तेलियों की नीयत पर शक भी कर रहा था।
कुछ दिनों बाद एक रात तेलियों के घर के करीब बंब चल गया। यद्यपि नुकसान तो कुछ नहीं हुआ था, पर सारा गाँव भयभीत हो उठा। लोगों का कहना था कि यह तेलियों की शरारत थी और तेली कहते कि हमें डराने और यहाँ से भगाने के लिए यह सब किया जा रहा था।
फिर, कई गाँवों के नेता तख्तपोशों पर इकट्ठे हुए जिनमें जांगलियों का चौधरी सराज अपनी दोनाली बन्दूक भी लेकर आया। फैसला हुआ कि चाहे यह इलाका पाकिस्तान में चला जाए या हिंदुस्तान में रहे, पर सभी इसी तरह अमन से बसते रहेंगे जैसे पिछले कई बरसों से भाइयों की भाँति रहते, बसते और आपस में व्यवहार करते आए हैं। कोई भी किसी का जानी नुकसान नहीं करेगा।
इस बात का प्रभाव चार दिन ही रहा और भीतर ही भीतर आग सुलगती रही। मुसलमान बरवाला एक रात अपने घर को ताला लगाकर भाग गया।
फिर, कानाफूसी हुई कि गाँव के कुछ जवान लायलपुर के करीब से कुछ पठानी बन्दूकें और ट्राली से बांध कर चलाने वाली एक छोटी-सी तोप ले आए थे और कुछ बंब भी तैयार कर लिए थे। वे कहते थे कि यदि मुसलमानों ने गाँव पर हमला किया तो वे पूरी तैयारी से मुकाबला करेंगे।
एक दिन शिखर दोपहरी चार विर्क घोड़ियों पर चढ़कर हमारे गाँव में घुस आए। उनके हाथों में किरपानें और जेबों में पिस्तौलें थीं। जब लोग उनके पास आकर एकत्र हुए तो एक ने ऊँची आवाज़ में कहा, ''हमारी विर्क बिरादरी पूरी तैयारी में है। हम अपने घर और ज़मीनों को छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे। जब तक हमारे अन्दर खून का एक कतरा भी बाकी है, हम दिलेरी से लड़ेंगे। अगर तुम्हारे ऊपर हमला हो तो हमें ख़बर करो, हम बिजली की तरह यहाँ पहुँच जाएँगे। कोई हमारे पर हमला करे और हम कव्वे के हाथ भी सन्देशा भेजें तो तुम पहुँचने में देरी न करना।''
और वे घोड़ियों को ऐड़ी मारकर ये गए, वो गए।
(जारी…)

Read more...

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

  © Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP