पंजाबी कहानी : आज तक

>> गुरुवार, 13 सितंबर 2012



पंजाबी कहानी : आज तक(12)

राम सरूप अणखी
जन्म : 28 अगस्त 1932, निधन : 14 फरवरी 2010

आज़ादी के बाद की पंजाबी कहानी में राम सरूप अणखी एक सम्माननीय नाम है। अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से आरंभ करने वाले इस लेखक ने ढेरों अविस्मरणीय कहानियाँ पंजाबी साहित्य की झोली में डालीं और यह जितना पंजाबी में लोकप्रिय रहे, उतना ही हिंदी के विशाल पाठकों द्वारा भी सराहे गए। अपनी साहित्यिक यात्रा के अन्तिम दौर में यह एक बड़े उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए। इनके उपन्यास 'कोठे खड़क सिंह' को वर्ष 1987 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। अध्यापक की नौकरी से सेवा मुक्त होने के बाद पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका 'कहाणी पंजाब' का बखूबी संपादन किया और पंजाबी की नई कथा पीढ़ी के कथाकारों को प्रमुखता से प्रकाशित कर प्रोत्साहित करते रहे। पंजाबी में चौदह कहानी संग्रह -'सुत्ता नाग'(1966), 'कच्चा धागा'(1967), 'मनुख दी मौत'(1968), 'टीसी दा बेर'(1970), 'कंध विच उगिया दरख्त'(1971), 'खारा दुध'(1973), 'द्धा आदमी'(1977), 'सवाल दर सवाल'(1980), 'छपड़ी विहड़ा'(1982), 'कदों फिरनगे दिन'(1985), 'किधर जावां'(1992), 'लोहे दा गेट'(1992), 'छड्ड के ना जा'(1994), 'चिट्टी कबूतरी'(2000)। कई कहानी संग्रह हिंदी में भी प्रकाशित। उपन्यासों में 'कोठे खड़क सिंह', 'सलफास', 'जमीनां वाले' 'कणक दा कत्लेआम', 'भीमा' आदि प्रमुख हैं।



लोहे का गेट
राम सरूप अणखी

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

और उस दिन लोहे का गेट बनकर पूरी तरह तैयार हो गया। मैंने सुख की साँस ली। चलो, आज तो लग ही जाएगा गेट। नहीं तो पिछले पंद्रह दिनों से घर का दरवाजा खुला पड़ा था। हालांकि दरवाजे के दोनों किनारों के बीच आदमी के कंधे बराबर ऊँची ईंटों की अस्थायी दीवार बना दी गई थी जिससे कोई ढोर-डंगर अन्दर नहीं आता था। गली में घूमते सुअर नहीं आते थे। फिर भी रात में कुत्ते दीवार फांद कर अन्दर आ जाते और आँगन में पड़े जूठे बर्तन चाटते घूमते। कुत्तों से अधिक मुझे चोर का डर सताता था। दीवार पर से कूद कर कोई अन्दर आ सकता था। इसीलिए मुझे रात को आँगन में सोना पड़ता। गरमी का महीना था, बेशुमार मच्छर थे। गेट बन्द हो तो अन्दर कमरे में बिजली के पंखे के नीचे आराम से सोया जा सकता था। कमरे में तो कूलर भी था। हर रोज़ मैं खीझता, ''यह कमबख्त लोहार गेट बनाकर देता क्यों नहीं ? जब भी जाओ, नया बहाना गढ़ देगा। गेट का फ्रेम बनाकर रख छोड़ा है।'' पूछो तो कहेगा-''बस, कल आपका ताला लगवा देंगे।'' इसी तरह कई कल बीत चुके थे। कोई और बहाना नहीं चलता तो पूछने लगता, ''गेट का डिजाइन कैसा रखना है ?'' मैं जलभुन जाता, ''बाबा जी, डिजाइन तो पहले दिन ही आपकी कॉपी पर नोट करा दिया था। अब दोबारा पूछने का क्या मतलब ? यह तो वही बात हुई कि किसी टेलर के पास इकरार वाले दिन अपनी कमीज़ लेने जाओ और वह पूछने लगे- कॉलर कैसे बनाने हैं ? बटन कितने लगाएँ ? जेबें दो या एक ?''
      असल बात यह थी कि वे आसपास के गाँवों से आने वाले लोगों का काम करके दिए जा रहे थे और मैं अपने गाँव का ही था। मुझे किधर जाना था। मेरा काम तो कभी भी करके दे सकते थे। मेरी तो उनसे कुछ जान-पहचान भी थी। दूसरा कोई होता तो कह देता -''नहीं बनाकर देना गेट तो ना बनाओ, मैं कहीं और से बनवा लेता हूँ।'' लेकिन उनके सामने मेरी आँखों की शर्म मुझे रोके थी। और फिर गेट का फ्रेम बनाकर सामने रखा पड़ा था।
      बूढ़ा बाबा एक कुर्सी लेकर सामने बैठा रहता, काम तो चार अन्य आदमी किया करते थे। इनमें से एक अधेड़ उम्र का था और तीन जवान थे। वे महीने की तनख्वाह लेते थे। बाबा का बेटा भी था। वह ऊपर के काम के लिए स्कूटर लेकर शहर में घूमता रहता। वर्कशाप में लोहे के गेट और खिड़कियों की ग्रिलें बनतीं। बेटा ग्राहक के घर जाकर गेट और खिडक़ी का नाप लेता। फिर बाज़ार से लोहा खरीद कर लाता। कभी-कभार किसी बड़े शहर में भी चला जाता।
      जवान मिस्त्रियों में सबसे छोटा था- चरनी। सब उससे मजाक किया करते। बाबा उसे झिड़की भी देता, पर वह हँसता रहता। वह किसी बात पर गुस्सा नहीं करता था। बूढ़ा बाबा ज्यादा तो उस पर तब खीझता जब वह बातें करते वक्त अपने हाथ में लिया हुआ काम छोड़कर बैठ जाता।
      कोई ग्राहक गेट बनवाने की खातिर पूछने आता तो बाबा सवाल करता, ''कितना चौड़ा, कितना ऊँचा ?'' या फिर ,''मकान यहीं है या पास के किसी गाँव में ?''
      ऐसे समय, चरनी सिर उठाकर ग्राहक की ओर देखने लग जाता और सवाल कर बैठता, ''कितने कमरे हैं मकान के ?''
      बाबा टूट कर पड़ता, ''ओए, तूने क्या कमरों से छिक्कू लेना है ? हमें तो गेट तक मतलब है, कमरों तक जाकर क्या करना है तुझे ?''
      या कोई आता और मकान बता कर खिड़कियों की बात करता तो चरनी का सवाल होता- ''मकान पर कितने हजार खर्च आ गया ?''
      ''ओए, तुम अपना काम करो...'' बाबा खीझ उठता। दूसरे मिस्त्री छिपकर मंद मंद हँसते। बाबा पर भी और चरनी पर भी।
      अधेड़ उम्र के मिस्त्री कुंढा सिंह को जब कभी चरनी को कोई काम समझाना होता तो वह उसे 'जंडू साहब' कहकर बुलाता। कभी कहता, ''मिस्त्री गुरचरन सिंह जी...।'' कभी खीझ रहा होता तो बोलता, ''पत्ती कसकर पकड़ ओए जुंडल। साले के मारूँगा एक चांटा।''
      गेट आठ फीट चौड़ा था, सात फीट ऊँचा। पाँच फीट चौड़ा दायाँ पल्ला था और तीन फीट का बायाँ पल्ला। पाँच फीट वाले पल्ले पर मैंने कहकर लोहे की एक प्लेट अलग से लगवाई थी ताकि उस पर अपना नाम लिखवाया जा सके। यह बड़ा वाला पल्ला आमतौर पर बन्द ही रहना था। घर के दरवाजे पर नेम-प्लेट तो ज़रूर होनी चाहिए, नहीं तो नये आदमी के लिए शहर में मकान ढूँढ़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह नेम प्लेट दो पेचों की मदद से पल्ले पर कसी हुई थी। पेच निकाल कर अकेली प्लेट को मुझे पेंटर के पास ले जाना था और उस पर अपना नाम लिखवाकर प्लेट को पुन: गेट पर पेंच कसकर फिट कर देना था।
      गेट को लगाने दो मिस्त्री आए थे। कुंढा सिंह और चरनी। आधा घंटा वे दोनों पल्लों को ऊपर-नीचे और इधर-उधर करते रहे। जब सबकुछ ठीक हो गया तो मेरी घरवाली दुकान पर लड्डू लेने चली गई। मकान की सूरत तो गेट लगने पर ही बनी थी। गेट था भी बहुत भारी और देखने में सुन्दर भी था। गेट ने तो मकान को कोठी यानी बंगला बना दिया था। घर में खुशी थी, लड्डू तो जरूरी थे। लड्डुओं के इंतज़ार में हम तीनों दो चारपाइयाँ बिछाकर बैठ गए। मेरे बच्चे इधर-उधर नाच-उछल रहे थे। वे स्कूल से लौटे थे और गेट की खुशी में अपने बस्ते उन्होंने आँगन में ही फेंक दिए थे। कुंढा सिंह चरनी से छोटे-छोटे मजाक कर रहा था। उसके मजाक मोह-प्यार के हल्के अंश भी लिए थे।
      चरनी इधर-उधर कमरों की ओर देख रहा था। आँखों ही आँखों में वह कुछ देख-परख कर रहा था। उसका ध्यान कुंढा सिंह की तरफ नहीं था। एकाएक उसने पूछ ही लिया, ''कब बनाया था यह मकान ?''
      ''इसे बने तो दस साल हो गए गुरचरन सिंह, बस तुम्हारे हाथों गेट ही लगना था।'' मानो मैं भी उससे मीठा मजाक कर बैठा था।
      ''कमरे तीन हैं क्या ?'' इधर उधर गर्दन घुमाकर उसने पूछा।
      ''हाँ तीन कमरे हैं। यह बरामदा, बाथरूम, स्टोर और किचन। स्कूटर रखने को शेड, ये भी सब गिन लो।''
      ''मकान इतना तो होना ही चाहिए।'' चरनी ने कहा।
      कुंढा सिंह फिर मुस्कराया, मूंछो में। बोला- ''असल में जी क्या है, जंडू साहब ने खुद भी बनाना है अब एक मकान।''
      उसकी बात पर चरनी की आँखों में जैसे एकाएक रोशनी के दीपक जल उठे हों। उसके चेहरे पर एक उमंग और भरी-पूरी हसरत थी।
      ''अच्छा, पहले क्या कोई मकान नहीं है ?'' हैरानी में मैंने पूछा।
      ''पहले कहाँ जी, वहीं बैठा है यह बेचारा, खोले में।''
      ''क्यों, ऐसा क्यों ?''
      चरनी खुद बताने लग पड़ा, ''हमारा घर जी कभी यहाँ सबसे ऊपर हुआ करता था, अब सब नीचे लगे बैठे हैं। मैं अकेला हूँ, बस एक मेरी माँ है। हमारे यहाँ भी इसी तरह मिस्त्री रखे हुए थे।''
      उसकी बात को बीच में काट कर कुंढा सिंह बताने लगा, ''इसका बाप, भाई साहब, क्या मिस्त्री था ! वह लोहे के हल बनाया करता था! उन दिनों लोहे का हल नया-नया ही चला था। ट्रैक्टर तो किसी-किसी के घर में होता। अब वाली बात नहीं थी। लकड़ी का हल थापर चऊ की जगह लोहे का ही सारा ढांचा फिट कर दिया था इसके बाप ने। टूट पड़े गाँवों के गाँव। बस, यह देख लो, एक दिन में बीस हल चल जाते, तीस भी और किसी-किसी दिन तो पचास हल बेच लेता था इसका बाप। इनके यहाँ मैं भी मिस्त्री रहा हूँ। मैंने अपनी आँखों से सब देखा है। बहुत कमाई की इसके बाप ने। पर जी, सब बर्बाद हो गया।''
      ''क्यों, वह कैसे ?''
      ''शराब पीने की आदत पड़ गई थी जी उसे।'' कुंढा सिंह ने ही बताया।
      ''अच्छा ।''
      ''शराब पीने का भी ढंग होता है भाई साहब। पर वह तो तड़के ही शुरू हो जाता। दिन में भी, शाम को भी, काम की तरफ उसका ध्यान कम हो गया। और फिर माल पूरा तैयार नहीं हो पाता था। दूसरे मिस्त्रियों ने भी यही काम शुरू कर दिया।''
      ''फिर ?''
      ''फिर जी, समय ही बदल गया। ट्रैक्टर बढ़ने लगे। लोहे के हलों की मांग कम हो गई। इसके बाप का काम तो समझो, बन्द ही हो गया। लेकिन उसकी शराब उसी तरह जारी थी। मरे बन्दे की बुराई नहीं करनी चाहिए लेकिन उसने भाई साहब, घर में तिनका भी नहीं छोड़ा। औजार तक बेच दिए। चरनी की माँ चरनी को लेकर मायके जा बैठी। चार-पाँच बरस का था यह बस।''
      चरनी मेरे लड़के के बस्ते में से एक स्लेटी लेकर आँगन के फर्श पर हल की तस्वीर बनाने लगा था। तभी मेरी घरवाली लड्डुओं का लिफाफा लेकर आ गई। हमारी बातें वहीं रह गईं। हमें दो-दो लड्डू देकर उसने एक एक लड्डू बच्चों को दिया और फिर पड़ोस के घरों में बांटने चली गई।
      दोनों मिस्त्रियों ने अपने औजार उठाये और मुझे 'सत्श्री अकाल' कहकर चले गए।
      कुछ देर मैं आँगन में बैठा रहा। फिर बाहर निकलकर गली में जा खड़ा हुआ यह देखने के लिए कि बाहर से लोहे का गेट कैसा लगता है।
      मैंने देखा, गेट की नेम-प्लेट पर स्लेटी से लिख हुआ था - ''गुरबचन सिंह जंडू।''

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आत्मकथा/स्व-जीवनी


पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
      कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)

सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com


आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


बदलती साहित्यिक सोच

1. पहला चरण - सितम्बर 1947 के बाद मैं नास्तिक और स्वयंमेव कम्युनिस्ट बन गया था। मैंने मार्क्सवादी विचारधारा की कोई पुस्तक न तब पढ़ी थी और न ही बाद में कभी पढ़ी। अपितु मैं इसके उलट साहित्य और धर्मग्रंथ बहुत पढ़ता रहा हूँ। एक तरफ़ कामरेडों और दूसरी तरफ़ साधू-संतों की संगत करता रहा हूँ। परन्तु सामाजिक असमानता और धर्म से रहित होने के विचार मेरे मन में शुरू से ही रहे हैं। मेरा रवैया रहा है कि मैं किसी भी वाम पंथी सोच वाले व्यक्ति को मिलकर उसको दस नंबर अधिक दे देता रहा हूँ। शायद यह भी बात ठीक ही हो कि मेरे मन में गरीबों के साथ सहानुभूति इतनी न हो, जितनी अमीरों के साथ नफ़रत हो। इसी तरह धर्मों के साथ इतनी नफ़रत न हो जितनी अधार्मिक आचरण वाले धार्मिक लोगों के साथ हो। नफ़रत की भावना मेरे अन्दर बचपन में ही पैदा हो गई थी, जब मेरा बड़ा भाई मुझे मारा करता था और मेरा बापू न उसको रोकता था और न ही मुझे दिलासा देता था। इस प्रकार नफ़रत और नफ़रतें पैदा करती रही थी।
      1953 में जब मैं जालंधर आया तो पंजाबी साहित्य और साहित्यकारों के साथ मेरा वास्ता पड़ा। उस समय कोई भी व्यक्ति प्रगतिवादियों के संग चले बगैर समझदार या कलाकार कहला ही नहीं सकता था। उनकी सोच से ज़रा-सा भी इधर-उधर होने पर लेखक मूर्ख या पागल समझा जाता था। साहित्यिक हस्तियों के साथ-साथ राजनैतिक हस्तियाँ भी पूजी जाती थीं। बेशक वो पंजाब की हों, भारत के किसी भी प्रांत की या अन्य किसी भी समाजवादी देश की हों। लेकिन मेरे अंदर पड़ी नफ़रत मुझे बुतपरस्त होने की बजाय बुतशिकन बनने पर मज़बूर करती थी। उन्हीं दिनों मेरे साथी महिरम यार, जसवंत सिंह विरदी, सुरजन ज़ीरवी और कामरेड हरदयाल सिंह जब भी बहस करते थे तो उनकी दलील के अन्त में मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ जे तुंग, गोर्की, चैखोव और टालस्टाय के हवाले होते थे। उससे आगे किसी की भी दलील नहीं सुनी जाती थी और मुझे किसी के भी हवाले से बहस करना मूर्खतापूर्ण लगता था।
      मैंने उनसे साहित्य और समाज के बारे में बहुत सी बातें समझी थीं। पर मेरे अंदर कोई जुनूनी व्यक्ति बैठा था, जो सारे लीडरों और दोस्तों को रद्द कर देता था। मुझे अंतर यह लगता था कि वे सियासत और समाज को पहल देते हैं और मैं साहित्य और समाज को। बहसों में कई बार मैं जब किसी तर्क का जवाब नहीं दे पाता था तो बौखलाहट में कम्युनिस्ट लीडरों को गालियाँ भी बक देता था।
      मैं इस बात के विरुद्ध था कि केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा के विषय में फैसले कम्युनिस्ट नेताओं की रहनुमाई में पार्टी के दफ्तर में हों। हालांकि मुझे पता था कि यह साहित्यिक संगठन कम्युनिस्ट पार्टी का लेखक विंग था। इन बातों के पता चलने पर मैंने लेखक सभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था। मुझे इस बात पर खीझ आया करती थी कि सभा की मीटिंग में कम्युनिस्ट नेता या उनके पाले हुए लेखक आकर बताएँ कि साहित्य क्या है ? वह पार्टी के आदेशानुसार हमारे लिए स्कूल लगाया करते थे। जिन्हें स्टडी सर्किल भी कहा जाता था। जो विचार राष्ट्रीय नेता देते थे, वे सारी दुनिया की पार्टी इकाइयों तक पहुँच जाते थे। धीरे-धीरे नीचे उतरते हुए वे हरेक विंग में पहुँच जाते थे। केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा भी कम्युनिस्ट पार्टी का एक विंग थी, जहाँ वही पुरानी चबाये हुए विचार दुहराये जाते थे।
      मैं अकेला पड़ जाने का दु:ख और सुख भोगता रहा था। जिसे मैं बनवास का तप-त्याग समझता हूँ। इसी ने मुझे कहानी लिखने की शिक्षा दी। जो कहानियाँ मैंने संगठन की विचारधारा के अधीन लिखीं, उन्हें मैंने रद्द कर दिया था।
      मेरे पहले कहानी संग्रह 'कच्चकड़े' के छपने से पहले ही साहित्यिक जगत में मेरी कहानियों की भिन्न पहचान मान ली गई थी। इसका कारण यह भी था कि मेरी विरासत में सिर्फ़ पंजाबी साहित्य ही शामिल नहीं था, बल्कि उर्दू और हिंदी साहित्य के अलावा पंजाब की लोक कथाएँ, देखे गए नाटक, रासलीलाएँ, किस्सों की कहानियाँ, पौराणिक कथाएँ, रामायण और महाभारत भी मेरी इस विरासत में शामिल थे। पर मार्क्सवादी धार्मिक ग्रंथों को विरासत नहीं मानते थे।
      1967-68 के समय में हिंदी और पंजाबी साहित्य में ऊल-जुलूलवाद का ज़ोर था। अमूर्त साहित्य रचा जाने लग पड़ा था। अमृता प्रीतम की पत्रिका 'नागमणि' में ऐसा साहित्य अधिक छपता था। उनमें मेरी कहानियाँ भी शामिल थीं। पर मैं किसी भी वाद या समूह की सोच से चलने के विरुद्ध था। परन्तु ऊपर लिखे वाद का प्रभाव मेरे दूसरे कहानी-संग्रह 'नमाज़ी' पर पड़ चुका था। उन विषयों और उस कथा-शैली के बारे में सोचते हुए मैं अंतर्मुखी होने लग पड़ा था। उसने मुझे मनुष्य के अवचेतन और अचेतन में विचरते अहसासों को समझने का ढंग बताया। पर यदि एक बात सिद्ध होती थी तो दूसरी उलझ जाती थी। इससे मुझे घटनाओं को उनके भिन्न-भिन्न पहलुओं से देखने का ढंग आया और उन्हें कहानी में लाकर फिट करने का तरीका भी।
      ज़िन्दगी से उदासीन होने वाले दौर के बाद जब मैं स्त्री और पुरुष के संबंधों की कहानियाँ लिखने लग पड़ा तो इन रिश्तों की परतों की परतें मेरे सामने रोज़ खुलने लग पड़ी थीं।
      मेरी सोच के बदलने का एक बड़ा कारण शायद दूसरा भी हो। वह यह कि राजसी हालात तेज़ी से बदल रहे थे। तेलंगाना की हथियारबंद क्रांति की असफलता के बाद पश्चिमी बंगाल के नक्सल इलाके में ज़मीनों से बेदख़ली के मामले में काश्तकारों ने हथियारबंद युद्ध छेड़ दिया था। जिसका प्रभाव उसके आसपास के क्षेत्रों के बाद उड़कर पंजाबी में आ गया था। इस वजह से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में से असंतुष्ट कामरेड पार्टी को दोफाड़-तिफाड़ करते रहे थे। आम लोगों का विश्वास कम्युनिस्ट पार्टी से टूटने लग पड़ा था। दुआबा के नौजवान भूख के मारे विलायत को भाग रहे थे। पंजाब में लाल पार्टी के बचे-खुचे लोगों के साथ मिलकर पढ़े-लिखे बेकार नौजवानों, जो कि पार्टी से निराश हो चुके थे, ने नक्सली लहर खड़ी कर दी थी। क्योंकि ये लहर पढ़े-लिखों की थी, इसलिए इसमें साहित्यकार भी शामिल थे। मेरा दोस्त सुरजीत हांस विलायत में बैठा था। उसने देश के लोगों के जीवन को सियासी, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर खूब अच्छी तरह समझा था। वह स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी में रह चुका था। उसने नक्सली लहर के साथ जुड़ने और 'बीमार रुचियों वाले साहित्य' का मुकाबला करने के लिए साहित्यिक पत्रिका निकालने की योजना बनाई। जो पढ़े-लिखे लोग विलायत जाते हैं, वे मानसिक तौर पर गोरों के दबाव में आकर अधिक कट्टर मार्क्सवादी बन जाते हैं।
      1970 में हमने 'लकीर' निकाला। इससे पहले अमरजीत चंदन एक गुप्त परचा 'दस्तावेज़' निकालता था। उसने दो अंक ही निकाले थे कि उसके हालात बिगड़ गए। 'लकीर' के बाद कई अन्य परचे भी क्रांतिकारी बन गए थे, जिन्होंने पंजाबी साहित्य का दिशा और रूप बदल दिया था। ऊल-जुलूलवाद की जगह नक्सली साहित्य पैदा होना शुरू हो गया था। बहुत शीघ्र इसने 'जुझारूवाद' का रूप धारण कर लिया था। उस समय मेरा यह विश्वास बन गया था कि राजसी क्रांति के सहायक के तौर पर साहित्य को हथियारों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मैं 'लकीर' में ऐसा साहित्य छापता था और यही प्रचार करता था। जालंधर के कॉफ़ी हाउस में नित्य इकट्ठा होते साहित्यकार भाँति-भाँति के साहित्य की बातें करने से हट गए थे। हरेक एक-दूजे से शक करने लग पड़ा था। कोई किसी को नक्सली समझता था और कोई किसी को पुलिस का एजेंट। नये ग्रुप बनने लग पड़े थे।
      चौतरफ़ सियासी माहौल गरम था। नक्सली पकड़े और पुलिस मुकाबलों में मारे जा रहे थे। मैं 'लकीर' में बहुत सारी कच्ची-पक्की कविताएँ उन कवियों की भी लिहाज से छाप देता था, जो नौजवान जेलों से भागते थे। पर मैंने स्वयं इस सारे समय में कोई ऐसी कहानी नहीं लिखी जिसमें क्रांति के नारे और प्रचार हो। मैंने सिर्फ़ कहानियाँ लिखीं...'तपीआ' और 'ख़ून-बहा'। इन दोनों कहानियों को मैं अब भी अच्छा साहित्य मानता हूँ। 'तपीआ' एक अंडरग्राउंड क्रांतिकारी लेखक की कहानी है, जो साधू के रूप में छिपता-छिपाता अपने कुएँ पर बने कोठे में चला जाता है। जहाँ उसका बाप मिलता है, पर वह उसको पहचानता नहीं। कामरेड अपने चित्त में घूमते विचारों के माध्यम से अपने बारे में, अपने मिशन, अपने घर और अपने बूढ़े होते जाते किसान बाप के विषय में सोचता है। वह कहानी किसी को सुनाई नहीं जाती। उसके मन में लिखी जाती है। वह रात अपने पिता के पास बिताकर तड़के उठकर चला जाता है। दूसरी कहानी 'खून बहा' कई बिम्बों के माध्यम से उभरती है। एक चौक है। उसके करीब एक चौबारे में नौजवान रहता है। अँधेरे -से माहौल में बैठा नौजवान सीन नाम की लड़की की प्रतीक्षा कर रहा है ताकि वह उसको लेकर चौक से परे कहीं चला जाए। वह न तो खुद चौक के इधर रहना चाहता है, न चौक के मध्य और न ही चौक पार कर जाने की उसमें हिम्मत है। यह अमूर्त-सी कहानी नक्सली बुद्धिजीवियों को पसंद आई थी और हिंदी में अनुवाद होकर 'पहल' में बड़े सम्मान के साथ छापी गई थी।
      फिर नक्सली लहर का पतन होने लग पड़ा था। मेरी सेहत भी खराब रहने लग पड़ी थी। मैं दफ्तर में काम करता दो बार बेहोश होकर गिर पड़ा था। डॉक्टर के मशवरे पर मैंने सिगरेट, चाय और शराब पीना बिलकुल छोड़ दी थी। साहित्य और नक्सली लहर के बारे में सोचते हुए मेरी सोच जबरन अपनी सेहत की ओर चली जाती थी। मैं पाकिस्तानी उर्दू कवि 'आबिदी' का शे'र गुनगुनाया करता था -
      आबिदी परवरिशे जां का ख़याल आता है
      परवरिशे लौह ओ कलम से पहले॥
      मैं तड़के उठकर सैर करने जाने लग पड़ा था। फिर भी मन टिकता नहीं था। उन्हीं दिनों में पत्रकारों की सोसायटी ने इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट से मुझे प्लॉट दिलवा दिया था। बस, सबब ऐसा बना गया कि मैं घरवालों और रिश्तेदारों से मिले पैसों से शहर से बाहर की तरफ़ निर्मित नई आबादी में मकान बनाने लग पड़ा था। और 'लकीर' निकालना बंद कर दिया था। घरवालों ने मेरी खराब सेहत देखकर नई ब्याई भैंस भेज दी थी। फिर घर से अनाज भी आने लग पड़ा था। मेरी सेहत ठीक होने लग पड़ी थी।
      मकान की अभी चारदीवारी हो रही थी कि नक्सली लहर से संबंधित कुछ यादों को लिखने को मेरा दिल हो आया। नये मकान में सेहत ठीक होने लग पड़ी थी। पर घर में बिजली नहीं आई थी। मैं दिन में ईंटें-रोडे इधर-उधर करता था और रोड़ी कूटता था। दोपहर को अख़बार के दफ्तर जाता था। शाम को फिर घर को संवारता था और रात को जब बच्चे सो जाते तो मैं लैम्प जला कर उसे अपने सिरहाने रखकर 'दस्तावेज़' के चार पाँच पृष्ठ हर रोज़ लिख लेता था। पिछले कई वर्ष नक्सली कामरेडों, सूझवान नेताओं और साहित्यिक लोगों में रह कर मुझे जो अनुभव हुए थे, उन्होंने मेरी सोच को ही बदल दिया था। मैं तीन दिन जेल में भी रहा था। अंडर ग्राउंड रहने वाले साथी मेरे घर आते जाते थे। इससे पहले जालंधर के हर किस्म के कामरेडों से मेरी मित्रता रही है। जो अब भी चलती है। मैं साहित्यिक तौर पर उनका चाहे कितना भी विरोधी होऊँ, पर मैं बैठता-उठता उनके साथ ही हूँ। वे चाहे जितने भी मूर्ख हों, पर उनमें एक खूबी तो होती है कि वे फ़िरकापरस्त नहीं होते।... पर यह बात 1980 से 1992 तक के पंजाब के बिगड़े हालात ने रद्द कर दी थी, क्योंकि पचास-पचास वर्ष कम्युनिस्ट रहने वाले साहित्यकार भी फ़िरकापरस्त हो गए थे। जिनमें साहित्य में मार्क्सवाद की जडें लगाने वाले अग्रज संत सिंह सेखों, जसवंत सिंह कंवल और अन्य कई शामिल थे। इससे पहले भी मार्क्सवादी साहित्यकारों में रंग बदलने वाली रुचि देखने को मिला करती थी। किसी की बुद्धि खराब हो जाए, इसके बारे में क्या कहा जा सकता है ?
      मुझे नहीं पता था कि मैं जो कुछ लिख रहा था, वह कोई नावल होगा या बिखरी-सी कहानी अथवा राजसी और साहित्यिक लहर को लेकर एक दस्तावेज़। इसलिए मैंने इसका नाम 'दस्तावेज़' रखा था। पर मुझे इस बात की समझ थी कि मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, वह कम्युनिस्ट कल्चर के विरुद्ध है। उनके कल्चर में यही बात थी कि समाज के उन लोगों को नंगा किया जाए, जो तुम्हारी नज़र में बुरे हैं। पर अपने आप को और अपने तथा अपने नेताओं और कामरेडों की बुराइयों को वैसे ही छिपा कर रखना चाहिए, जैसे राजसी नेता और धर्म-स्थानों के पुजारी करते हैं।... इसीलिए मैं समझता था कि जो लेखक अपनी रचना के प्रति ईमानदार नहीं, वह समाज के साथ ईमानदार कैसे हो सकते हैं ?
      मेरा दूसरा कहानी संग्रह 'नमाज़ी' छपा था तो प्रगतिवादियों ने मेरी सोच और मेरी कला की निंदा करते हुए इसे पतन की ओर जाता कहा था। जब नक्सली लहर के बारे में मेरे अनुभवों और यादों पर आधारित 'दस्तावेज़' तपा के सी.मार्कंडा द्वारा निकाली जा रही पत्रिका 'किंतु' (1976) में छपा तो हर तरह का कामरेड चीख़ पड़ा था। उसमें नक्सली लहर से जुड़े कामरेडों की 'बल्ले-बल्ले' नहीं की गई थी। मैंने उनके कारनामों के यथार्थ को बयान करने के यत्न किए थे। यह कम्युनिस्ट विचारधारा का उल्लंघन था। नक्सली संगठनों ने अपने कामरेडों पर 'दस्तावेज़' पढ़ने पर पाबंदी लगा दी थी। कई जगहों पर पत्रिका की होली जलाई गई थी। उन्होंने अपने परचों में मेरे लिए अश्लील गालियाँ प्रकाशित कीं और दोष लगाया था कि मैंने यह नावल अमेरिका से पैसा खाकर लिखा है। यह आरोप कम्युनिस्ट कल्चर के ऐन मुताबिक था। सी.पी.आई. वालों ने फ़ैसला करके नावल की शेष प्रतियाँ अपने बुक-स्टालों पर से उठवा दी थीं। विरोधी सुर में बोलने या लिखने वाले पर गंदे से गंदे दोष लगाना कम्युनिस्ट पार्टियों का कल्चर है। जब दोनों पार्टियों में से नक्सली निकले थे तो उन पर भी इसी प्रकार के आरोप लगाए गए थे।
      पत्रिका के संपादक सी. मार्कंडा को इतनी धमकियाँ दी गई थीं कि उसको माफ़ी मांगनी पड़ी और मेरे विरुद्ध कहना पड़ा कि प्रेम प्रकाश ने मुझे पढ़ाये बगैर ही इसे अपनी मर्जी से छाप लिया है। इसमें काफ़ी सच्चाई भी थी। उसको मैंने अपनी इस रचना के बारे में जुबानी सब कुछ बता दिया था, पर उसने इसे पढ़ा नहीं था। उसके साथ नक्सलियों द्वारा किए गए सलूक का मुझे बड़ा अफसोस हुआ। बुरा यही लगा था कि उसने सारी बात मेरे पर डाल दी थी।
      मेरी इस रचना की आलोचना हर किस्म के कम्युनिस्ट ने की थी। जिसके कारणों का पता अब इस बात से लगता है कि पंजाबी साहित्य में वामपंथियों ने अपने समाज की बुराइयों-अच्छाइयों के बारे में तो लिखा, पर अपनी लहर के बारे में और अपने कामरेडों के जीवन के विषय में कुछ नहीं लिखा। एक भी बढ़िया कहानी कामरेडों के बारे में नहीं मिलती। जसवंत सिंह कंवल ने भावुक होकर 'लहू दी लौ' उपन्यास लिखा, जो अपनी भावुकता के चलते प्रसिद्ध भी हुआ। अब भी बिक रहा है। उसी कंवल ने खालिस्तानी आतंकवादियों के हक में भी 'एनियां विचों उठ सूरमा' उपन्यास भी रचा। वह भी इसी तरह मकबूल हुआ। बिका और पढ़ा गया।
      कुछ समय के बाद डॉ. अतर सिंह ने किसी अंग्रेजी अख़बार में 'दस्तावेज़' के बारे में लेख लिखा था। जिससे मेरे मन के गिले मिट गए थे। उसने इस पुस्तक के साथ कंवल के उपन्यास 'लहू दी लौ' का मुकाबला भी किया था।
      इस उपन्यास को लिखने में मुझे सबसे अधिक प्रेरणा कामरेड केवल कौर, अमरजीत चंदन, लाल सिंह दिल और चित्रकार सुरजीत कौर तथा अन्य कई साथियों से मिली थी।
(जारी)

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पंजाबी उपन्यास


बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


     
9

आठवीं कक्षा पास होने की खुशी में मेरी माँ ने देसी घी का कड़ाह बनाकर आस-पड़ोस में बाँटा। मालवे के इस गाँव में जहाँ हमें ज़मीन अलॉट हुई थी और तेलियों का घर रहने के लिए मिला था, आस पास कोई आठवीं जमात तो क्या, चार जमात पास भी कोई नहीं था। अड़ोसिनें-पड़ोसिनें मेरी माँ को बधाई देने आईं। मैं भी काफ़ी खुश था।
      इस आठवीं कक्षा पास करने की सबसे बड़ी प्रतिक्रिया हमारे पड़ोसियों के घर में हुई। हमारे पड़ोस में करम सिंह नाम का शरणार्थी बहावलपुर रियासत से उजड़कर हमारी ही तरह यहाँ आ बसा था। तेलियों का जो घर हमें अलॉट हुआ था उसके दो हिस्से थे। एक हिस्से में वो रहते थे और दूसरे में हम। बीच में करीब छह फीट ऊँची दीवार की ओट थी जिसमें एक दरवाजे क़े बराबर खिड़की थी, जिस पर तख्ते नहीं थे। आगे बड़ा दरवाज़ा था जो दोनों घरों का साझा था। इस दरवाज़े में मैं दिन के समय बैठकर पढ़ा करता था और पड़ोसी करम सिंह के बेटी मुक्ति अपनी सहेलियों के संग फुलकारियों पर फूल-बूटे काढ़ा करती थी। वे लड़कियाँ फूल-बूटे काढ़ते हुए ससुराल से मायके आई अड़ोस-पड़ोस की लड़कियाँ, जो नई नई दुल्हनें बनी होती थीं, से उनके साथ बीती घटनाओं की कहानियाँ सुना करती थीं। कभी ये लड़कियाँ चरखे कातते हुए लम्बी टेर में गीत छेड़ बैठतीं। और जब कभी बारिश होती तो ये गिद्धा डालतीं और नाचतीं भी। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात यह थी कि यह सब कुछ मेरी उपस्थिति में होता था। या तो ये मुझे लड़का नहीं समझती थीं, या समझ कर अनदेखा कर देती थीं। मेरी पढ़ाई में इनकी बातों से विघ्न ज़रूर पड़ता था, परन्तु सच बात तो यह थी कि इनकी बातों में एक स्वाद सा मुझे भी आने लग पड़ा था। अक्सर लड़कियाँ मुक्ति का नाम ले लेकर मुझे छेड़ा करतीं। एक बार मैं सो रहा था तो इनमें से एक लड़की ने मेरे सिर में मुट्ठी भर कर रेत डाल दी थी। इस लड़की का नाम संती था और उसका विवाह कुछ महीने पहले एक दुहाजू से हुआ था जिसके कई खेत थे और लम्बी-चौड़ी जायदाद थी। विवाह से पहले यह लड़की जो अपने आप को बहुत सुन्दर समझती थी, कई बार हमारे घर मुझसे आँखों में दारू डलवाने आया करती थी, परन्तु सबसे सुन्दर और लम्बी मुक्ति ही थी। नाचने, गाने, दौड़ने और सिर पर पानी के भरे तीन घड़े उठा लाने में वह सबसे आगे थी। गाँव के आवारा लोग पेड़ों की ज़ड़ों पर बैठकर उसका राह तका करते थे और आती-जाती पर भद्दे मज़ाक किया करते थे। पर वह किसी को अपनी जूती बराबर भी नहीं समझती थी। यही लोग मुझे गली-बाज़ार में से गुज़रते देख मुक्ति का नाम लेकर ऊल-जुलूल फब्तियाँ कसते थे परन्तु मैं शरमा कर गर्दन झुका वहाँ से गुज़र जाता था। मुझे इन बातों में दूर तक कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैंने कई बार देखा था कि खिड़की या बड़े दरवाज़े की दरारों में से मुक्ति की दो मोटी आँखें मेरी तरफ़ घूरती रहती थीं और इन आँखों को मैंने बाज़ार में गुज़रते वक्त अपनी पीठ पर भी महसूस किया था। ये पीठ में से आर पार होकर अक्सर मेरी छाती के बायीं ओर भी महसूस होती थीं। लेकिन मैं तब भी इन आँखों के गहरे अन्दर झाँकने का कभी साहस नहीं किया था। यह मुझे कुछ पाप जैसा लगता था। गुरद्वारे में बैठ कर बुरी बात की ओर ध्यान जाने जैसा।
      अब मेरे पास हो जाने पर पड़ोसी करम सिंह जिसका खेत भी हमारे घर की तरह ही हमारे खेत के साथ ही लगता था, मेरे बापू से कहने लगा, ''सरदारा ! तेरा लड़का बड़ा लायक है। पाकिस्तान में मेरी लड़की साववीं में पढ़ती थी। इधर आकर हिम्मत ही नहीं पड़ी आगे पढ़ाने की।''
      ''गाँव में स्कूल है, आठवीं तो करा ले लड़की को।''
      ''जवान-जहान लड़की ने अब क्या पढ़ना है। और साल-छमाही कोई लड़का देखकर दूसरों की अमानत उनके घर भेज देंगे। धीयों का क्या मान है।''
      ''अब तो मुल्ख़ आज़ाद हो गया है। तू क्या सोचता है। मेरे पूछे तो लड़की को आठवीं ज़रूर करवा दे।''
      ''पता नहीं, अब चलेगी भी कि नहीं। साल हो चला है पढ़ाई छोड़े हुए। और फिर इस गाँव में ज्यादा लड़कियाँ स्कूल जाती ही कहाँ हैं।''
      ''ले, शाह की लड़की भी पढ़ती ही है।''
      ''वो तो तक़दीरवाला है, उसका क्या कहना।''
      ''तालीम में तकदीर का क्या मतलब, लड़की उसने हैडमास्टर को डरा-धमका कर पास करवाई है। कल मेरे लड़के गुलाब को बुलाकर शाह ने सौ रुपया ईनाम दिया। फर्स्ट जो आया है मेरा गुलाब। और साथ ही शाह ने कहा है कि अब से उसकी लड़की को आकर पढ़ाया करे। दोनों मिलकर पढ़ेंगे तो लड़की भी दसवीं कर जाएगी। करम सिंह, शाह का मतलब है कि लड़की दस पढ़ गई तो शाह किसी बड़े अफ़सर से उसे ब्याह देगा। आजकल के अफ़सर जायदाद की इतनी परवाह नहीं करते, जितनी पढ़ी-लिखी लड़की की मांग करते हैं।''
      ''अच्छा, तू कहता है तो फिर डाल देते हैं मुक्ति को भी पढ़ने। गुलाब खुद उसको भी पढ़ा दिया करेगा।''
      ''ले उसने कभी मना किया है, जब कहे वो तैयार है। इल्म तो जितना किसी को बाँटें, उतना ही बढ़ता है।''
      मुक्ति को स्कूल की सातवीं कक्षा में दाख़िला दिला दिया गया। यह बात सारे गाँव में आग की तरह फैल गई। बूढ़ी स्त्रियों ने नाक-मुँह सिकोड़े। अधेड़ों ने चर्चा की। हमउम्रों ने ईर्ष्या और पेड़ की जड़ों में बैठने वालों के दिलों पर आरियाँ फिर गईं। स्कूल के लड़के मुक्ति के लम्बे कद, तीखे नक्श, गोरे रंग पर कलियों जैसे दाँतों की बातें करने लगे। मास्टर एक-दूसरे को घूरने लगे, पर सबसे अधिक असर इस घटना का मोहनी पर पड़ा। मोहनी के कपड़े बेशक पूरे स्कूल में सबसे सुन्दर और कीमती होते थे, परन्तु रंग-रूप और कदकाठी में वह मुक्ति के मुकाबले में सिफ़र थी। मोहनी मुक्ति को देखकर जलने लगी और जलकर राख होने लगी। उसके सांवले चेहरे पर माता के दाग और भी ज्यादा गहरे दिखाई देने लगे। मानो राख पर बारिश की बूँदें पड़ी हों और इस राख की ढेरी पर मुझे बिठा दिया गया हो। स्कूल से निकलकर मैं शाह और हैडमास्टर के हुक्म के अनुसार एक घंटा मोहनी की हवेली के बड़े मकान की तीसरी मंज़िल पर मोहनी को पढ़ाने जाता। उसके पास पढ़ने के लिए तो जैसे समय ही नहीं था। वह मुझे सबसे पहले मुक्ति के विरुद्ध बातें सुनाती और फिर मुझसे कहती, ''तुझे मेरी सौगंध अगर तू मुक्ति के साथ बोले।''
      मैं उसको एलजबरे का सवाल निकालने के लिए कहता, वह मुझे हीर का किस्सा सुनाने के लिए कहती। मैं उसको ज्योमेट्री की थ्यौरियाँ याद करने को कहता तो वह प्रत्युत्तर में गाँव के लड़के-लड़कियों के प्रेमकिस्से सुनाने लग पड़ती। पर एक मुक्ति थी जो एक बार अंग्रेजी का सबक लेकर, फिर जुबानी ही सुना सकती थी। जिसके कपड़े मेरी तरह ही गन्दे और पुराने थे, पर दिमाग उतना ही अधिक तेज़ था। मैं मोहनी और मुक्ति का मुकाबला न करना चाहते हुए भी करने से नहीं रह सकता। मुक्ति को मैं जैसा कहता, वह वैसा ही करती थी। उसके अन्दर पढ़ाई की लगन थी, पर मोहनी तो मुझे पढ़ाना चाहती थी।
      इस सबका परिणाम यह निकला कि नौंवी कक्षा में मोहिनी फेल थी, लेकिन परिणाम घोषित करते समय उसे पास बताया गया। मैं आठवीं कक्षा की भाँति नौंवी कक्षा में भी प्रथम आया। मुक्ति सातवीं में प्रथम आई। मोहिनी ने शाह के कान भरे कि मुक्ति स्कूल के लड़कों और मास्टरों को खराब करती थी। उसको स्कूल से उठा लिया गया। शाह ने करम सिंह को बुलाकर बस एक इशारा ही किया और करम सिंह तो पहले ही शाह के कई तरह के अहसानों और कर्ज़ों में दबा हुआ था। मुक्ति का स्कूल जाना तो बन्द हो गया पर उसको पढ़ने से कोई न रोक सका। मेरे कहने पर उसने सीधे आठवीं की प्राइवेट परीक्षा की तैयारी प्रारंभ कर दी। मैं स्वयं दसवीं की तैयारी करता। बेमन से मोहिनी की हाज़िरी भी भरता और बच-बचकर चलते हुए मुक्ति को भी पढ़ाता। दसवीं की परीक्षा से पहले ही मैंने बागी होकर मोहिनी की तरफ़ जाना छोड़ दिया और मेरा सारा मोह मुक्ति की झोली में आ गिरा। शाह चुप था। इस चुप के पीछे पता नहीं क्या छिपा हुआ था। परीक्षा देने के लिए हमें बठिंडा जाना पड़ा। नतीजा निकला तो मेरी थर्ड-डिवीज़न थी और मोहिनी जिसे 'वह जाता है' की अंग्रेजी भी नहीं आती थी, फर्स्ट डिवीज़न में पास थी। काफ़ी समय बाद पता चला कि वह अपनी कापी पर मेरा रोल नंबर लिखती रही थी और मेरी उत्तर कापी पर दिया गया रोल नंबर उसके रोल नंबर में बदल दिया जाता था। लेकिन हैरानी वाली बात यह थी कि मैं फिर भी पास था। शायद इसलिए कि नकल आधार पर उसने थर्ड डिवीज़न में पास होने योग्य परचे कर-करा लिए थे।
      इन्हीं दिनों में एक और भूचाल आ गया। इस गाँव में से हमें अस्थायी रूप से अलॉट हुई ज़मीन के बदले फीरोजपुर में दरिया के किनारे एक गाँव में स्थायी ज़मीन अलॉट कर दी गई। यह गाँव फीरोजपुर से बीस मील दूर था। इस गाँव की अधिकांश आबादी राय सिक्ख, कंबो सिक्ख, लाहौरिये जट्ट, छोटी जाति के सिक्ख और भिन्न-भिन्न तरह के लोगों की थी। सभी पाकिस्तान से उजड़कर आए थे। सभी गरीब थे और सभी पुन: पैरों पर खड़े होने का यत्न कर रहे थे। गाँव में न कोई पक्का मकान था और न ही कच्चा। लोग सरकंडों के छप्परों तले और झुग्गियों में रहते थे। राय सिक्ख यह छप्पर इस कारीगिरी से बाँधते थे कि बारिश की एक बूँद भी अंदर नहीं जा सकती थी। दरिया हर वर्ष मार करता था और मकान ढह जाते थे। इसलिए लोग सरकंडों की झुग्गियों में ही रहते थे।
      इस गाँव में हमें बहुत सारी बंजर, चाही(कुएँ के पानी से सींची जाने वाली ज़मीन) और नहरी पैली अलॉट हो गई। जो काश्तकार पहले ही इस ज़मीन को जोत-बो रहे थे, हमें उनसे कोई एतराज़ नहीं था। हमारे रहने के लिए उन्होंने कच्चा कोठा और तीन-चार सरकंडों की झुग्गियाँ कुछ दिनों में ही खड़ी कर दीं। बापू जी वहाँ ज़मीन की देखभाल के लिए चले गए और मालवे के इस गाँव में मैं, मेरी माँ और छोटी दो बहनें रह गईं। मुक्ति के घरवालों की ज़मीन भी बदलकर तहसील फ़रीदकोट में दूर एक बीकानेर नहर के किनारे बसे गाँव में अलॉट हो गई थी। यह गाँव हमारे नए अलॉट हुए गाँव से कोई दस-बारह मील की दूरी पर था। मुक्ति का पिता उस गाँव में ज़मीन का दख़ल लेने गया, शीघ्र ही लौट आया। गाँव को दस-बारह मील तक न कोई सड़क थी और न ही कोई स्टेशन। ज़मीन बहुत घटिया थी और बीच में आक, जौ और ऊँचा घास उगा हुआ था। कई वर्षों से वहाँ कुछ बोया ही नहीं गया था। और जब बोया ही नहीं गया तो उगना क्या था। मुक्ति का पिता आँखों में घुसन्न देकर रोता रहा था। पाकिस्तान से उजड़कर आए अभी तीन साल ही हुए थे और रोटी मिलने ही लगी थी कि पुन: उजड़ना पड़ गया। उसे कौन बताता कि जब एक बार घोंसले टूट जाते हैं तो नए सिरे से पेड़ तलाश कर, तीले-तिनके इकट्ठे करके घोंसले बनाने कितने कठिन होते हैं। जिनके घोंसले सदियों से बन-बनाये हैं, वे क्या जाने कि घोंसले जब ढह जाते हैं तो फिर बड़ी मुश्किल से बनते हैं।
      मलवई लोगों की मसखरियों की ताब अभी झेलने लायक हुए ही थे कि सरकार का फिर से कूच का हुक्म हो गया था। इधर की ज़मीन दूसरे शरणार्थियों को अलॉट हो गई थी और वे कब्ज़ा लेने के लिए आ भी गए थे। वे तो घर भी खाली करवाने को कह रहे थे। हालांकि मुसलमानों के कई घर गाँव की दूसरी पत्ती में खाली पड़े थे, परन्तु वे कुएँ से दूर पड़ते थे। वहाँ से पानी ढोकर लाना एक कठिन काम था। चक्कर आने लग पड़ते थे। कई कमज़ोर देह वाली औरतों के घड़े राह में ही गिरकर टूट जाते। तीसरे दिन झीवर आता तो लोग बीस-बीस घड़े पानी के भरवा कर रख लेते और तीन दिन पीते रहते। कई बार फिटकरी घोलकर पोखर का पानी पीना पड़ता। मलवई स्त्रियाँ छह-छह महीने सिर न धोतीं। उनके सिरों में से बू आने लगती। बेशक गुंदे हुए बालों में ऊपर फूल बना रखे होते, पर नीचे जूएँ सरकती रहतीं।
      एक दिन एक पड़ोसिन मेरी माँ से बोली, ''री अम्मा, जल्दी से कंघी दे, छह महीने हो गए नहाये, कहीं जाते-जाते पानी ठंडा न हो जाए।''
      मेरी माँ हँसकर कहने लगी, ''छह महीने तो तुझे देर नहीं हुई, अब पल भर में देर हो जाएगी।''
      फिर उस औरत ने लस्सी डालकर सिर धोया, पर सिर निखरा नहीं। फिर सोडा डालकर सिर धोया, फिर भी न निखरा। फिर रीठे डालकर सिर धोया, पर सिर था कि जमता ही गया। फिर छट्टियों की राख में दही और तेल डालकर धोया, पर बालों की जटायें बकरी की बालों या डेरे के साधू की जटाओं जैसी बनती गईं और सिर नहीं निखरा। गर्दन अकड़ गई और चीखती-चिल्लाती औरत के जमे हुए बाल कैंची से काटने पड़ गए।
      मुक्ति के पिता ने शाह से हिस्से पर लेकर ज़मीन जोतनी-बोनी शुरू कर दी और अपनी ज़मीन-जायदाद होते हुए भी वह काश्तकार बन गया।
      उसकी नज़रों में अब बेटी जवान हो गई थी और हाथ पीले कर देने के योग्य भी। गाँव में पेड़ों के नीचे बैठने वाले लोगों की नज़रों में तो वह सब कुछ ही थी। बच्ची भी थी, जवान भी थी और दोस्त भी थी। दु:ख-सुख बाँटने वाली भी। मेरे जज्बों, हावों-भावों को समझती भी थी। मेरे चेहरे के भावों को पढ़कर बात करती और जब कभी मैं उदास होता तो घबरा जाती। एक साथ जीने-मरने की कसमें खाती और अक्सर विवाह के लिए कहा करती, पर मैं उसको समझा देता था कि विवाह और प्रेम दो अलग-अलग बातें हैं। कम से कम इस समय तो दो अलग बातें ही हैं। परन्तु हो सकता है कि कोई समय ऐसा आए कि दोनों बातें चलते-चलते एक हो जाएँ। पर तू यह न समझना कि यदि हमारा विवाह नहीं हो सकता तो हमारा प्यार यूँ ही भूल-भुलैया की खेल था। ये बातें क्या सारी उम्र भूल सकती हैं, या भुला दिए जाने वाली हैं। अभी तो मुझे कालेज में उच्च विद्या की प्राप्ति के लिए दाख़िला लेना है।
      फिर, सारी दुनिया को अपना घर समझना है। अभी तो वहाँ पहुँचना है जहाँ धरती-आकाश के मिलने का भ्रम होता है और जब मैं कामयाबी की स्थिति में पहुँच गया, फिर तुझे दुनिया की सैर के लिए ले चलूँगा। हमारे दो खूबसूरत बच्चे होंगे, शो-केसों में रखे जापानी खिलौनों की तरह। पर ये तो रेत के महल थे, और करम सिंह शाह से कर्ज़ा उठा कर मुक्ति के विवाह की सोच रहा था। वर जैसा भी मिल जाए, अच्छा या बुरा। रोटी-पानी और कपड़ों की लड़की को तंगी न हो, बस।
      करम सिंह की घरवाली की जिद्द के आगे हमने भी एक वर्ष और उसी गाँव में रहने का निश्चय कर लिया और अब तो अगली पढ़ाई के लिए खर्चे की भी कोई तंगी नहीं थी। नई अलॉट हुई ज़मीन से अच्छी आमदनी होने लग पड़ी थी।
      कई बार मैं सोचा करता कि सौ रुपये का नोट जो शाह ने मुझे हकीर समझ कर दिया था, वह मैं उसको सूद सहित लौटा आऊँ। ऐसे नोटों की कई झलकियाँ उसके बाद भी मोहिनी मुझे दिखाती रही थी। अपनी छब्बीस-छब्बीस पन्नों की ऊल-जुलूल किस्म की लिखी चिट्ठियों में रखकर।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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